भौतिक वस्तुओं संपत्ति, धन, जायदाद के प्रति लोभ ,मोह यह सर्वसाधारण मनुष्य की प्रवृत्ति है। इसी प्रवृत्ति के कारण संसार में उसे दुखों का सामना करना पड़ता है।
जब दुखों के कारण का विश्लेषण मानव ने किया तो पता चला कि संग्रह करने की प्रवृत्ति ही मूल कारण है ।
आवश्यकता से अधिक किसी वस्तु का संग्रह करना उसके प्रति मोह रखना यानी परिग्रह।
सूक्ष्म रूप से देखा जाए तो जीवन में दुखों के असंख्य कारणों में से एक बड़ा कारण परिग्रह है।
अगर इसके विपरीत अपरिग्रह को अपनाया जाए तो काफी हद तक दुखों से मुक्ति संभव है।
अपरिग्रह का सिद्धांत सनातन धर्म जैन मत बौद्ध मत में विस्तार पूर्वक बताया गया है।
जो मेरा नहीं उसे पर मेरा अधिकार नहीं।
जो मेरा है उसमें से मैं उतना ही लूंगा जितने से मेरी आवश्यकता पूर्ण हो जाए और यही संसार में रहते हुए सन्यासी बनने की प्रक्रिया का प्रथम चरण है ।
हमने देखा है कि लोगबाग शादी की पार्टियों में जाते हैं तो प्लेट में बहुत सारा खाना भर लेते हैं भले ही बाद में वह उनसे खाया ही ना जाए,नतीजा भोजन फेंक दिया जाता है और भोजन की बर्बादी होती है ।
यही सिद्धांत संपत्ति संग्रह पर भी लागू होता है रहने के लिए एक मकान आवश्यक है लेकिन एक मकान से भला जी कहां भरता है।
प्लाट पर प्लाट खरीदना फ्लैट दर फ्लैट खरीदना दर्जनों गाड़ियां खरीदना भले ही उनका उपयोग ही ना हो।
कोई व्यक्ति अपने जीवन काल में किसी वस्तु का कितना उपयोग कर सकता है ? यह प्रश्न सबसे बड़ा है।
आखिर यह सब किस लिए किसके लिए? मरने के पश्चात अपने साथ में लेकर जाना तो संभव नहीं है, फिर अपना बहुमूल्य जीवन केवल संग्रह में गंवा दिया जो संग्रह किया उसका उपयोग करने के लिए तो समय ही नहीं मिला।
जो हमने संग्रह किया वह वस्तु किसी अन्य के काम आ सकती थी जो हमने अपने दामन में भर ली, किसी अन्य को भी उसका उपयोग नहीं हो पाया।
क्या यही मानव जीवन का उद्देश्य है?
मैंने आदिवासी समुदाय में कार्य किया है भ्रमण किया है उनके जीवन को बहुत बारीकी से समझा है।
हमारे वनवासी आदिवासी वन संपदा का केवल उतना ही उपयोग करते हैं जितना आवश्यक है ।
वृथा संग्रह करना ना तो उनका स्वभाव है और ना ही उनकी प्रवृत्ति।
हजारों वर्षों से वे लोग वन संपदा का दोहन अपरिग्रह की भावना से कर रहे हैं इस कारण आज भी वन संरक्षित हैं अन्यथा कब के नष्ट हो गए होते ।
जो बात हमें बुद्ध ने महावीर ने ,संतों ने बताई उसे बात का शब्दशः पालन हमारे वनवासी आदिवासी कर रहे हैं किंतु हम नहीं।
जिन्हें हम पिछड़ा कहते हैं सही अर्थों में वे ही अधिक प्रगतिशील और विकसित हैं क्योंकि उन्होंने अपरिग्रह को अपना जीवन बनाया है।
प्रकाश केवड़े, नागपुर