1947 में स्वाधीनता मिलने के बाद पूरा देश उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। इनमें जम्मू-कश्मीर का हाल सबसे खराब था। वहां राजा हिन्दू था, पर अधिकांश प्रजा मुसलमान। शेख अब्दुल्ला अपनी अलग ढपली बजा रहा था। प्रधानमंत्री नेहरू जी का हाथ उसकी पीठ पर था। पूरे देश के एकीकरण का भार सरदार पटेल पर था; लेकिन जम्मू-कश्मीर में नेहरू जी अपनी चला रहे थे।24 अक्तूबर को विजयादशमी का पर्व था। हर साल इस दिन महाराजा की शोभायात्रा श्रीनगर में होती थी। हिन्दुओं के साथ मुसलमान भी उत्साह से इसमें शामिल होते थे। पाकिस्तान समर्थकों ने इस शोभायात्रा पर हमला कर राजा के अपहरण या हत्या का षड्यंत्र रचा। इससे वे पूरे राज्य में अफरातफरी मचाना चाहते थे। उस दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सैकड़ों कार्यकर्ता देश की रक्षा के लिए प्रयासरत थे। उन्हें इस षड्यंत्र का पता लग गया।इससे एक दिन पूर्व बारामूला और उड़ी के मार्ग से सैकड़ों पाकिस्तानी सैनिक कबाइलियों के वेष में श्रीनगर की ओर चल दिये थे। उनकी योजना 24 अक्तूबर को श्रीनगर पर कब्जा करने की थी। शोभायात्रा स्थगित करने से राज्य में गलत संदेश जाने का भय था। अतः राज्य प्रशासन ने संघ से संपर्क कर एक योजना बनायी। इसके अनुसार 24 अक्तूबर को सुबह छह बजे तक 200 युवा स्वयंसेवक वजीरबाग के आर्य समाज मंदिर में पहुंच गये।वहां उन्हें पूरी योजना समझाई गयी। इसके बाद संघ प्रार्थना हुई। फिर उनमें से 150 युवक सैन्य वाहन से बादामी बाग छावनी भेज दिये गये। वहां अगले कुछ घंटे तक उन्हें राइफल चलाना सिखाया गया। पहले नकली और फिर असली कारतूसों ने निशानेबाजी का अभ्यास हुआ। सैन्य अधिकारी उन्हें सीमा पर भेजना चाहते थे। संघ के स्वयंसेवक इसके लिए तैयार थे; पर गहन विचार विमर्श के बाद उन्हें शोभायात्रा की सुरक्षा में तैनात कर दिया गया।शाम को पांच बजे शोभायात्रा शुरू हुई। सबसे आगे रियासत का प्रमुख बैंड था। उसके पीछे सौ घुड़सवार सुंदर वेशभूषा में अपने भालों पर रियासत का लाल तथा केसरी ध्वज लिये आठ-आठ की पंक्तियों में चल रहे थे। उसके पीछे छह घोड़ों की एक संुदर और सुसज्जित बग्घी पर राजा, युवराज और उनके दो अंगरक्षक बैठे थे। जरी की अचकन और केसरी पगड़ी में पिता-पुत्र बहुत सुशोभित हो रहे थे। उसके पीछे की बग्घियों में राज्य मंत्रिमंडल के सदस्य तथा कुछ बड़े जागीरदार थे। उनके पीछे फिर सौ घुड़सवार थे। शोभायात्रा धीरे-धीरे अपने निर्धारित मार्ग पर बढ़ रही थी।जहां से भी यह शोभायात्रा गुजरती, लोग उत्साह से ‘महाराजा बहादुर की जय’ के नारे लगाते थे। राज्य की पुलिस के साथ ही साधारण वेशभूषा में 150 स्वयंसेवक भी पूरे रास्ते पर तैनात थे। झेलम नदी के पुल से होकर शोभायात्रा अमीराकदल के चैक में पहुंची। वहां दर्शकों की अपार भीड़ थी। जैसे ही महाराजा की सवारी चैक के बीच में पहुंची, दर्शकों में से किसी ने काले रंग की गेंद जैसी कोई चीज महाराजा पर फेंकनी चाही। वह वस्तुतः एक बम था; पर तभी दर्शकों में खड़े एक युवक ने उसका हाथ पकड़ लिया। दो युवाओं ने उस बमबाज को गले से पकड़ा और भीड़ से बाहर खींच लिया। आम लोग शोभायात्रा देखने में व्यस्त थे। उन्हें कुछ पता नहीं लगा।शोभायात्रा अपने निर्धारित समय पर राजगढ़ के महल में पहुंच गयी। वहां आठ बजे दरबार शुरू हुआ, जिसमें कुछ लोगों को उपहार तथा उपाधियां आदि दी गयीं। नौ बजे महाराजा और उनके परिजन अपने आवास पर लौट गये। इस प्रकार स्वयंसेवकों ने एक भारी षड्यंत्र को विफल कर दिया। इसके दो दिन बाद राजा के हस्ताक्षर से जम्मू-कश्मीर भारत का अंग बन गया।
साभार: पवन अग्रवाल, गाजियाबाद