कट्टरपन्थ की आग में झुलसा बांग्लादेश

अमरदीप जौली


जुलाई, 2024 में बांग्लादेशी छात्रों ने नौकरी कोटा प्रणाली के खिलाफ एक सामूहिक विद्रोह शुरू किया, जो सरकारी दमन और सत्तारूढ़ पार्टी से जुड़े समूहों के हमलों के बाद हिंसक हो गया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कोटा प्रणाली को समाप्त किए जाने के बावजूद, विरोध प्रदर्शनों ने व्यापक सुधारों की मांग को लेकर जोर पकड़ा। सरकार की कड़ी प्रतिक्रिया, जिसमें कफ्र्यू, इण्टरनेट बन्दी और देखते ही गोली मारने के आदेश शामिल थे, ने प्रदर्शनकारियों और सुरक्षा बलों के बीच घातक संघर्षों को जन्म दिया। इन संघर्षों में सैकड़ों लोगों की जानें गईं। तब के हल्के नारे अब उन्मादी अट्टहासों में तबदील हो गए हैं। तब की आशंकाएं आज आर्तनाद में परिवर्तित हो गई हैं। रक्तरंजित बांग्लादेश चौराहे पर खड़ा है। चारों ओर खून ही खून! वह जिस रास्ते पर चलता हुआ यहां तक पहुंचा है, उस पर नजर दौड़ाने पर दूर तक कुछ जगहों पर बिखरी हुई लाशें दिख जाती हैं। कट्टरपन्थ क्रूर ठहाके लगा रहा है और बंग संस्कृति स्तब्ध है!
चौराहे की प्रकृति होती है कि वह किसी को रुकने नहीं देता। ठिठकने भर की छूट देता है। उसके बाद किसी न किसी दिशा में बढऩा ही होता है। बांग्लादेश भी इस ठिठकन के बाद बढ़ेगा, किसी न किसी राह पर चलेगा। इसलिए मुद्दा यह नहीं। मुद्दा यह है कि आगे कट्टरपन्थ की सांसें कैसे चलेंगी,क्योंकि यदि इसकी सांसें चलेंगी तो आगे भी बांग्लादेश की सांसें उखड़ती रहेंगी।
पहली नजर में ऐसा लगता है कि बांग्लादेश के वर्तमान संकट की जड़ में नौकरियों में कोटे की व्यवस्था के प्रति व्यापक असंतोष है लेकिन जब वहां के सर्वोच्च न्यायालय को इसे बदलने के लिए मजबूर कर दिया गया तो लोगों ने हाथ-के-हाथ व्यापक सुधार के काम को भी अंजाम तक पहुंचाने का बीड़ा उठा लिया और इसी का परिणाम था कि प्रधानमंत्री शेख हसीना का तख्तापलट हुआ और उन्हें 5 अगस्त को देश छोडक़र निकलना पड़ा। क्या यह अराजकता इतनी ही तात्कालिक और स्वत:स्फूर्त थी? नहीं, कतई नहीं!
रोग के लक्षणों की बात करने से पहले यह देखते हैं कि इसने कैसे सामाजिक कोशिकाओं को खाया है। विभाजन के समय पाकिस्तान में हिन्दू अल्पसंख्यकों की आबादी 14.2 प्रतिशत और पूर्वी पाकिस्तान में 28.4 प्रतिशत थी। आज पाकिस्तान में हिन्दुओं की आबादी 2.14 प्रतिशत रह गई है और हिन्दू मोटे तौर पर सिन्ध में सिमटकर रह गए हैं। पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश में हिन्दू अल्पसंख्यकों की आबादी 8-8.5 प्रतिशत रह गई है और ये मुख्यत: भारत के साथ लगते सीमाई जिलों में रह गए हैं। देश के विभाजन के बाद इन दोनों जगहों से हिन्दू अल्पसंख्यकों को आसमान खा गया या जमीन निगल गई? इन्हें लील लिया कट्टरपन्थ ने, जिसके लक्षण विभाजन के समय से ही समय-समय पर दिखते रहे। सबसे पहले विभाजन के ठीक पहले 1946 का रुख करते हैं। मुस्लिम लीग के चोले में कट्टरपन्थ ‘प्रत्यक्ष कार्रवाई’ का आह्वान करता है और 16 अगस्त का दिन कलकत्ता की सडक़ें हिन्दुओं के खून से रंग जाती हैं।
पार्टीशन आफ इण्डिया’ पुस्तक में रिचर्ड साइम्स कहते हैं- ‘डायरेक्ट एक्शन डे के दौरान कांग्रेस का आवश्यक कदम नहीं उठाना एक बड़ा धक्का था।’ इसके बाद आ जाइए 1947 में। बंगाल का विभाजन हुआ और आज के बांग्लादेश में हिन्दुओं पर अकथनीय अत्याचार हुए। एक बार फिर नेहरू जी ने चिंता जताई, इसे एक बुराई के तौर पर देखा लेकिन विशेष तौर पर हिन्दुओं के विरुद्ध हुए अत्याचार पर आवश्यक संवेदनशीलता से ध्यान नहीं दिया। ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ में लैरी कॉलिंस और डॉमनिक लैपियर लिखते हैं- ‘पन्थनिरपेक्ष भारत के बारे में नेहरू के नजरिये में विभाजन के दौरान भडक़ी साम्प्रदायिक हिंसा पूरी जगह नहीं पा सकी।’
1975 में भी बांग्लादेश में कट्टरपन्थ ने ‘बंगबन्धु’ और उनके परिवार के रक्त से स्नान किया था। शेख हसीना इसलिए बच गई थीं कि तब वह विदेश में थीं। अभी के तख्तापलट में भी कट्टरपन्थ ने अराजकता के बाने में रक्त की नदियां बहाई हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण का फैसला पलट दिया तो क्या, कट्टरपन्थ को वहां उत्पात मचाना था और इस बार वह जमाते इस्लामी और कुछ गैर-सरकारी संगठनों के मुखौटे के पीछे छिपकर आया। बांग्लादेश का यह संकट बताता है कि कट्टरपन्थ समय-समय पर चोला बदलकर आता है और कुछ तत्त्व सीधे उसमें शामिल हो जाते हैं तो कुछ अपनी निष्क्रियता से उसे पलने-बढऩे देते हैं।

संयुक्त राष्ट्र से बांग्लादेश में हिन्दुओं के उत्पीडऩ पर तुरन्त हस्तक्षेप की मांग
बांग्लादेश में कथित आरक्षण विरोधी आंदोलन के बहाने इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा हिन्दुओं और अन्य अल्पसंख्यकों पर हिंसा को लेकर बुद्धिजीवियों,शिक्षाविदों, वकीलों और नागरिकों के समूह ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् को पत्र लिखकर मामले में हस्तक्षेप करने की अपील की है। उन्होंने कहा कि बांग्लादेश में हिन्दुओं और अन्य अल्पसंख्यक के खिलाफ बढ़ता उत्पीडऩ परेशान करने वाला है। 6 अगस्त, 2024 को सैन्य तख्तापलट हुआ था, जिसके कारण प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद को देश छोडऩे के लिए मजबूर होना पड़ा। इसके बाद से वहां पर हालात बेहद खराब हो गए हैं। राजनीतिक अस्थिरता ने हिन्दुओं और अन्य अल्पसंख्यकों की विभेदता को और अधिक बढ़ा दिया है। इसका असर ये हुआ है कि इस घटना के कारण देश में अराजकता बहुत फैल गई है। रिपोट्र्स में कहा गया है कि कई हिन्दू और अन्य अल्पसंख्यक पुरुषों, महिलाओं और बच्चों पर बहुत ही क्रूर हमले किए गए हैं। हाल के दिनों में बांग्लादेश में हिन्दुओं और अन्य समुदाय के सदस्यों की हत्या के कई मामले प्रकाश में आए हैं। इससे लोगों में डर और असुरक्षा का माहौल बना हुआ है। यहीं नहीं कट्टरपन्थियों ने हिन्दू महिलाओं के साथ भी बर्बरता की। लगातार हो रहे इस उत्पीडऩ के कारण हिन्दू परिवारों का सामूहिक पलायन हुआ है। अनुमान लगाया है कि 1.5 मिलियन से अधिक हिन्दू और अन्य अल्पसंख्यक शरणार्थी जिनमें पुरुष, महिलाएं और बच्चे भारत में शरण लेने की कोशिशें कर रहे हैं। गौरतलब है कि बांग्लादेश में हिन्दुओं और अल्पसंख्यकों की संख्या बहुत ही नगण्य है।
वर्ष 2022 की राष्ट्रीय जनगणना के मुताबिक, बांग्लादेश में हिन्दुओं की आबादी केवल 8 प्रतिशत है। बाकी के अल्पसंख्यक केवल एक प्रतिशत हैं। वहीं देश में मुस्लिमों की आबादी 91 प्रतिशत थी जबकि इससे पहले वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, उस दौरान बांग्लादेश में 89 प्रतिशत मुसलमान थे और 10 प्रतिशत हिन्दुओं की संख्या थी जबकि, बाकी अल्पसंख्यकों की दुर्दशा जस की तस बनी थी। कुल मिलाकर 2011 के मुकाबले हिन्दुओं की संख्या में गिरावट आई है।

हसीना के विरोधियों से मिल रहे थे अमेरिकी अधिकारी
अप्रैल 2023 में शेख हसीना बांग्लादेश की संसद् में भाषण देते हुए कहती हैं, ‘अमेरिका चाहे तो किसी भी देश में सत्ता बदल सकता है। अगर उन्होंने यहां कोई सरकार बनवाई तो वो लोगों की चुनी सरकार नहीं होगी।’ हसीना के इस बयान के एक साल और 3 महीने बाद 5 अगस्त को न सिर्फ उन्हें इस्तीफा देना पड़ता है, बल्कि देश तक छोडऩा पड़ा। 3 दिन बाद बांग्लादेश में रात को अंतरिम सरकार बनी। नोबेल शान्ति पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस को इसका मुखिया बनाया गया है। वही, मोहम्मद यूनुस जिन पर हसीना विदेशी एजेंट होने के आरोप लगाती रही हैं। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि क्या अमेरिका ने हसीना के तख्तापलट में कोई भूमिका निभाई है ?
26 मई को बांग्लादेश प्रधानमंत्री आवास पर शेख हसीना ने 14 पार्टियों की बैठक बुलाई। इसमें हसीना ने कहा ‘बांग्लादेश और म्यांमार के कुछ इलाकों को तोडक़र ईस्ट तिमोर जैसा ईसाई देश बनाने की साजिश रची जा रही है। एक व्हाइट मैन ने चुनाव से पहले मुझे ये ऑफर दिया था कि यदि वह अपने देश की सीमा में सैनिक अड्डा बनाने की अनुमति देती हैं तो बिना किसी परेशानी के चुनाव कराने दिया जाएगा।’
शेख हसीना ने ये नहीं बताया कि वो देश और वो व्हाइट मैन कौन है, लेकिन शक की सुई अमेरिका पर उठी। दरअसल जून 2021 में बांग्ला अखबारों में दावा किया गया कि अमेरिका, बांग्लादेश से सेण्ट मार्टिन द्वीप की मांग कर रहा है। यहां सैन्य ठिकाना बनाना चाहता है। सेण्ट मार्टिन द्वीप जिसे लेकर बांग्लादेश की राजनीति में इतना हंगामा मचा वह सिर्फ 3 वर्ग किमी का एक द्वीप है। म्यांमार से इसकी दूरी सिर्फ 5 मील है। जून 2023 को शेख हसीना ने कहा था कि विपक्षी पार्टी अगर सत्ता में आई तो वे सेण्ट मार्टिन बेच देंगे। हसीना ने कहा था कि अगर वो सेण्ट मार्टिन को पट्टे पर दे देंगी तो उन्हें देश चलाने में कोई परेशानी नहीं होगी, लेकिन वे देश की धरती को किसी विदेशी के हवाले नहीं कर सकतीं। इसके बाद अमेरिका और बांग्लादेश के बीच तनाव उनके रिश्ते में दिखाई देने लगा। अमेरिका ने दिसंबर 2021 में बांग्लादेश के रैपिड एक्शन बटालियन पर प्रतिबन्ध लगा दिया। ये बल 2003 में आतंकवाद रोकने के लिए बना था, लेकिन विपक्षी नेताओं पर अत्याचार करने के लिए बदनाम था। 2023 में अमेरिका ने बांग्लादेश के कई नेताओं पर वीजा प्रतिबंध लगाए। अमेरिका ने तर्क दिया कि बांग्लादेश में चुनाव की प्रक्रिया को कमज़ोर करने वाले हर शख्स पर वो प्रतिबंध लगाएगा।
बांग्लादेश में अमेरिका का प्रभाव उसके बनने से पहले से है। जब बांग्लादेश की आज़ाद का संघर्ष चल रहा था तब अमेरिका पश्चिमी पाकिस्तान का साथ दे रहा था। शेख मुजीब-उर-रहमान और अवामी लीग के साथ अमेरिका का टकराव बहुत पहले से है। हालांकि, शेख हसीना की सरकार में उसके अमेरिका के रिश्ते कायम थे मगर ये बहुत अच्छे नहीं रहे। बांग्लादेश में चुनाव से पहले ऐसी खबरें आम थीं कि अमेरिकी अधिकारी विपक्षी नेताओं से मिल रहे हैं। वे कट्टरपन्थी संगठन जमात-ए-इस्लामी पार्टी के नेताओं से भी मिल रहे थे। कयास हैं कि बांग्लादेश की स्थिति में अमेरिका का हाथ भी हो सकता है।
प्रियंका सिंह कहती हैं कि बांग्लादेश में सरकार बदलने से अमेरिका को फायदा हो सकता है। मोहम्मद यूनुस पश्चिमी देशों से जुड़े रहे हैं। वहां काफी काम कर चुके हैं। अमेरिकी प्रणाली से काफी घुलेमिले हैं। वे अमेरिकी हितों पर ध्यान दे सकते हैं। यदि उन्हें अमेरिका का समर्थन मिल रहा होगा तो ये बहुत आश्चर्यजनक नहीं होगा। मोहम्मद यूनुस ही को शांति का नोबेल मिल चुका है। उन्हें प्रतिष्ठित रैमन मैग्सेसे पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है। इस अवॉर्ड की फण्डिंग फॉर्ड फाउण्डेशन करता है, जो अमेरिका का एक प्रतिष्ठित संस्थान है। उनकी अमेरिका से निकटता है ये किसी से छुपी नहीं है। हसीना सरकार में जब उन्हें जान से मारने की धमकी दी गई थी तो उन्होंने अमेरिकी दूतावास में ही शरण ली थी।
जनवरी 2007 की बात है। सेना ने बांग्लादेश की सत्ता पर कब्जा कर लिया था। पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना और खालिदा जिया दोनों ही भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल में बन्द थीं। सेना ने देश को चलाने के लिए बांग्लादेश के नोबेल प्राइस विनर मोहम्मद यूनुस को कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाने की कोशिश की। हालांकि, यूनुस इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी लेने से पीछे हट गए। 17 साल बाद बांग्लादेश में फिर राजनीतिक उथल-पुथल मची है। शेख हसीना देश छोडक़र भाग गई हैं। अब अंतरिम सरकार चलाने की ज़िम्मेदारी उन्हीं मोहम्मद यूनुस पर आई है, जिन्होंने 17 साल पहले प्रधानमंत्री के पद को ठुकरा दिया था। इस बार यूनुस ने प्रस्ताव को स्वीकार भी कर लिया है।

1971 में पाकिस्तानी सेना के हथियार डालने की याद में बनी मूर्ति तोड़ी
बांग्लादेश में मजहबी उन्मादियों का खुला खेल चला है। ये कट्टरपन्थी सम्भवत: उन्हीं उन्मादी रजाकारों की संतानें हैं जो 1971 में बर्बर पाकिस्तानी सैनिकों के साथ खड़े होकर अपने ही देश वालों पर गोलियां चला रहे थे। तभी तो इनके द्वारा 1971 में पाकिस्तानी सेना के कमाण्डर द्वारा भारतीय जनरल के सामने घुटने टेकने की याद दिलाने वाली मूर्ति को तोड़ डाला गया। ढाका में शहीद स्मारक में मौजूद रही यह मूर्ति टुकड़े—टुकड़े कर दी गई है। देश में छात्र आन्दोलन के नाम पर जिहादी सोच के उपद्रवियों द्वारा मनमानी की जा रही है। देश जिस घटनाक्रम के परिणामस्वरूप पाकिस्तान से आज़ाद हुआ, उसकी स्मृति में बने ‘आत्मसमर्पण के स्मारक’ को टुकड़े—टुकड़े कर दिया जाना बहुत कुछ बताता है। इस प्रतिमा में, ‘आत्मसमर्पण के दस्तावेज’ को 16 दिसम्बर, 1971 की विजय की याद में लगाया गया था, जब पाकिस्तानी सेना कमाण्डर द्वारा भारत की सेना तथा बांग्लादेश की मुक्ति वाहिनी के सामने आत्मसमर्पण के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए। उस समय पाकिस्तानी कमाण्डर थे मेजर जनरल आमिर अब्दुल्ला खान नियाजी, जिन्होंने अपने 93,000 सैनिकों के साथ लेफ्टिनेण्ट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने हथियार डाले थे। जनरल अरोड़ा उस समय भारत की पूर्वी कमान के जनरल ऑफिसर कमाण्डिंग-इन-चीफ थे। पाकिस्तान के 93 हजार सैनिकों का वह आत्मसमर्पण दूसरे विश्व युद्ध के बाद, दुनिया का सबसे बड़ा सैन्य आत्मसमर्पण माना जाता है।

– साभार दै.भा.

Leave a comment
  • Facebook
  • Twitter
  • LinkedIn
  • Email
  • Copy Link
  • More Networks
Copy link
Powered by Social Snap