राजिंदर सिंह का जन्म 14 जून 1899 को बागूना गांव (अब राजिंदरपुरा, सांबा जिला ) में एक सैन्य डोगरा राजपूत परिवार में हुआ था। उनके पूर्वज जनरल बाज सिंह महाराजा गुलाब सिंह के अधीन सेवा करते हुए मर गए थे । उनके दादा हमीर सिंह और पिता सूबेदार लाखा सिंह दोनों ही युद्ध के दिग्गज थे। राजिंदर सिंह का लालन-पालन उनके चाचा लेफ्टिनेंट कर्नल गोविंद सिंह ने बचपन से ही किया था। सिंह ने 1921 में जम्मू के प्रिंस ऑफ वेल्स कॉलेज (अब जीजीएम साइंस कॉलेज ) से स्नातक की उपाधि प्राप्त की।26 अक्तूबर, 1947 को महाराजा हरिसिंह के हस्ताक्षर से जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय हुआ। दो महीने तक वे असमंजस में रहे कि वे विलय करें या नहीं। पाकिस्तान ने इसका लाभ उठाकर ज/क का काफी हिस्सा कब्जा लिया। शेष राज्य को बचाने का श्रेय ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह को है। 22 अक्तूबर, 1947 को पाकिस्तान ने ज/क पर हमला बोल दिया। 24 अक्तूबर को दशहरे पर परम्परागत रूप से महाराजा की शोभायात्रा श्रीनगर में होती थी। वहां के पाकिस्तान समर्थकों ने उस पर हमला कर राजा के अपहरण का षड्यंत्र रचा। वे सोचते थे कि राजा दबाव में आकर पाकिस्तान में विलय के पत्र पर हस्ताक्षर कर देंगे। या उन्हें मारकर बाजी ही उलट देंगे; पर संघ के स्वयंसेवकों की जागरूकता से यह षड्यंत्र विफल हो गया।पर इधर पाकिस्तानी सैनिक लगातार आगे बढ़ रहे थे। 24 अक्तूबर को शोभायात्रा समाप्त होते ही पूरे श्रीनगर की बिजली चली गयी। पूछने पर पता लगा कि उड़ी के पास महुरा बिजलीघर पर शत्रु का कब्जा हो गया है। उड़ी सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण था। बारामूला वहां से पास ही था। उस पर यदि शत्रु का कब्जा हो जाता, तो फिर श्रीनगर का पतन निश्चित था।यह बात महाराजा भी जानते थे। इसलिए उन्होंने 23 अक्तूबर को अपने विश्वस्त ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के नेतृत्व में 200 सैनिक वहां भेज दिये। वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि शत्रु सैनिक संख्या में बहुत अधिक हैं तथा उन्होंने आसपास पहाड़ों पर मोरचे बना लिये हैं। जब उन्होंने अपने साथियों से परामर्श किया, तो वे सब निराश थे। ब्रिगे. राजेन्द्र सिंह ने अपने पूर्वजों की वीरता की कहानियां सुनाकर उनमें जोश भरा, जिससे वे लड़ने को तैयार हो गये।उड़ी से बारामूला मार्ग पर एक पुल था। ब्रिगे. राजेन्द्र सिंह की योजना थी कि यदि उसे तोड़ दें, तो शत्रु आगे नहीं बढ़ सकता; पर मजबूत लोहे और सीमेंट से बना होने के कारण उसे बिना डायनामाइट के नहीं तोड़ा जा सकता था, जो उनके पास नहीं था। फिर भी रियासती सेना पुल के पास मोरचे बनाने लगी। इस पर पहाडि़यों पर तैनात शत्रु गोली चलाने लगे। इससे कई रियासती सैनिक मारे गये। ब्रिगे. राजेन्द्र सिंह ने कुछ सैनिक बारामूला भेज दिये, जिससे यदि उड़ी छोड़ना पड़े, तो बारामूला बच सके। इसके साथ ही वे विभिन्न मोरचों पर जाकर सैनिकों का उत्साहवर्धन करने लगे। इस लड़ाई में पूरा दिन बीत गया। इस दौरान उन्हें भी कई गोलियां लगीं। उन्होंने पीछे हटने का निर्णय लिया; पर शत्रुओं ने उड़ी और बारामूला के बीच पत्थर और पेड़ काटकर बिछा दिये थे, जिससे कोई रियासती सैनिक बचकर वापस न जा सके।इस सबके बावजूद रियासती सैनिक बीच की रुकावट को पैदल पारकर दूसरी ओर खड़े ट्रकों में बैठने लगे; पर ब्रिगे. राजेन्द्र सिंह की जांघों में गोलियां लगने से वे खड़े होने की स्थिति में भी नहीं थे। एक सैनिक ने उन्हें उठाना चाहा; पर वह भी गोली का शिकार हो गया। तभी शत्रु जीप में सवार सैनिकों ने उन पर भीषण गोलीवर्षा कर दी। जिससे 26 अक्तूबर, 1947 को वे युद्धभूमि में ही शहीद हो गये। दुर्भाग्यवश गोली चलाने वाला मुसलमान सैनिक पहले रियासती सैनिक था, जो अपने साथियों सहित उधर जा मिला था।यद्यपि उड़ी और फिर बारामूला भी पाकिस्तान के कब्जे में आ गया; पर इस सबमें एक दिन बीत जाने से श्रीनगर और शेष कश्मीर बच गया। ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह को मरणोपरांत भारत के पहले ‘महावीर चक्र’ से अलंकृत किया गया। उनका गांव अब राजेन्द्रपुरा के नाम से जाना जाता है।
साभार: पवन अग्रवाल गाज़ियाबाद