काल तो महाकाल है,
प्रकट है; अप्रकट है,
साकार है; निराकार हैं,
नित्य नए रूप के साथ;होता साकार है,
काल तो महाकाल है।
मशीन है; हसीन है, हर मंत्र का आधार है।
गोल है;चकोर नहीं,
घूमते हुए चक्र का आकार है।
पहुंचने में कहीं भी; संकोच नहीं,
उसके लिए कोई अमीर नहीं; गरीब नहीं; बड़ा नहीं; छोटा ;नहीं ऊंचा; नहीं नीचा नहीं; अफसर नहीं; नौकर नहीं।
अधिकारी नहीं; सिपाही नहीं,
राजनेता नहीं; समाजवेतानहीं,
ज्ञानी नहीं; अज्ञानी नहीं,
सन्यासी नहीं; गृहस्थी नहीं,
मां नहीं बाप नहीं,
प्रकाश नहीं; अंधकार नहीं,
धर्मात्मा नहीं दुरात्मा नहीं,
विजय नहीं पराजय नहीं,
देव नहीं दानव नहीं,
मानव नहीं अवतार नहीं,
सबका ईश्वर; सबको बराबर मानने वाला काल।
केवल सूर्य ही उसका देव है; मालिक भी है। उसी से संचालित है;उसी के एक इशारे पर करता अपना सब काम है,वही उसका ठहराव है, वही पड़ाव है; वही गति भी; वही मति भी;वही प्रगति भी; वही अधोगतिभी;वही सृष्टि भी;वही दृष्टि भी; वही दृष्टि भी;वही देव भी,वही दानव भी ।
वही जीवन भी; वही मृत्यु भी।
वही अनुशासन भी;वहीं प्रशासन भी,
वही दिव्यता भी; वही भव्यता भी,
वहीउन्नति भी।
वही विदुर भी; वही शकुनी भी।
क्या नहीं वह सब कुछ है हां सब कुछ है,
देवों का वरदान है; असुरों का संहार है।
राम की जय है; रावण की पराजय है।
क्या नहीं है वह, सब कुछ है,सब कुछ है हां सब कुछ।
सच में तू काल नहीं; महाकाल है, तेरी जय हो जय हो जय जय हो सदा जय ही हो।
-जीतू अपराजेय