वैष्णव-संप्रदाय के आदि आचार्य संत रामानुज को गुरुमंत्र देते हुए उनके गुरु ने सावधान किया – “गोप्यं, गोप्यं परं गोप्यं, गोपनीयं प्रयत्नत:” – इस मंत्र को प्रयत्नपूर्वक गोपनीय रखना। संत रामानुज मंत्र-जप के साथ ही विचार करने लगे – “यह अमोघ प्रभुनाम मृत्युलोक की संजीवनी है। यह जन-जन की मुक्ति का साधन बन सकता है, तो गुप्त क्यों रहे?”
और उन्होंने गुरु के आदेश की अवज्ञा कर वह मंत्र सभी को बता दिया। गुरु ने जो देखा तो बड़ कुद्ध हुए, बोले, “रामानुज! तूने मंत्र सभी को बता दिया! तूने गोपनीय मंत्र प्रकट कर पाप अ्जिंत किया है। तू निश्चित ही नरकगामी होगा।” रामानुज ने गुरु के चरण पकड़ लिए। बोले, “गुरुदेव! जिन्हें मैंने मंत्र बताया है, क्या वे भी नरकगामी होंगे?” “नहीं, वे तो मृत्युलोक की आवागमन से मुक्त हो जाएंगे। उन्ें पुण्यलाभ होगा।” संत रामानुज के मुखमंडल पर संतोष की आभा दीप्त हो गयी। सोचा, “यदि इतने लोग मंत्र के प्रभाव से मोक्ष प्राप्त करेंगे, तो मैं शत बार नरक जाने को तैयार हूं”
गोपनीय मंत्र प्रकट
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