जगत गुरु श्री शंकराचार्य

भूमेश योगी

जगत गुरु श्री शंकराचार्य

श्री शंकराचार्य : संक्षिप्त परिचय

  • श्री शंकराचार्य का जन्म 8वीं शताब्दी में हुआ था, उनका जन्म स्थान केरल के कालादि नामक गाँव माना जाता है। उनके पिता का नाम शिवगुरु था। उनका मूल नाम शंकर था, लेकिन उन्हें श्री शंकराचार्य के रूप में प्रसिद्धि मिली।
  • श्री शंकराचार्य ने जल्द ही ज्ञान की प्राप्ति की और बालक के रूप में ही उनकी असाधारण विद्वत्ता का परिचय हो गया। उन्होंने भारतीय दर्शन और वेदांत के कई महत्वपूर्ण ग्रन्थों का अध्ययन किया और उन्होंने अद्वैत वेदांत पर विशेष ध्यान दिया।
  • श्री शंकराचार्य ने अपने जीवन के दौरान भारत के विभिन्न भागों में भ्रमण किया और विविध धार्मिक वाद-विवादों में हिस्सा लिया। उन्होंने वेदांत के सिद्धांतों की व्याख्या की और अनेक शास्त्रीय ग्रन्थों की टीका तथा व्याख्या की। उन्होंने भारतीय साहित्य और धार्मिक संस्कृति को एक मजबूत आधार प्रदान किया।
  • श्री शंकराचार्य की मृत्यु के बाद उनके विचार और सिद्धांतों ने भारतीय धार्मिक और दार्शनिक परंपरा पर अत्यंत प्रभाव डाला। उनके द्वारा स्थापित वेदांत के सिद्धांत आज भी विश्वसनीय और महत्वपूर्ण माने जाते हैं।

श्री शंकराचार्य – राष्ट्रीय अखंडता

  • श्री शंकराचार्य द्वारा स्थापित अद्वैत वेदान्त के सिद्धांतों ने भारतीय समाज को एकता और एकात्मता की  दिशा में मार्गदर्शन प्रदान किया। उनका संदेश था कि जगत में अनंतता की दिशा में सत्य एक है और सभी जीवों में एक ही आत्मा का आभास होता है।
  • श्री शंकराचार्य ने भारतीय समाज में धार्मिक समरसता और सहयोग को प्रोत्साहित किया। उन्होंने धर्म, भाषा, और क्षेत्रीय भेदों को परिहार करने का संदेश दिया और एकता में एकीकरण का प्रयास किया।
  • श्री शंकराचार्य के द्वारा शिक्षित अनुयायियों ने भारतीय समाज में समरसता, सामंजस्य, और सहयोग की भावना को बढ़ावा दिया है। उनके विचार और संदेश ने राष्ट्रीय एकता और समरसता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई
  • उन्होंने अपने जीवन के दौरान विभिन्न भारतीय क्षेत्रों में धार्मिक और दार्शनिक संदेश जन सामान्य तक पहुँचाया और लोगों के बीच एकता और सामाजिक समरसता को बढ़ावा दिया।
  • श्री शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों के माध्यम से विभिन्न धार्मिक और जातिवादी भेदों का खंडन किया। उनका मुख्य सिद्धांत था कि ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, और आत्मा ब्रह्म है। इसका अर्थ था कि सभी जीवों में एक ही आत्मा का आभास है और वास्तविकता में उनमें कोई भेद नहीं है।
  • श्री शंकराचार्य ने भारतीय समाज को एक एकतामय संस्कृति के रूप में प्रोत्साहित किया। उन्होंने धर्म, भाषा, और क्षेत्रीय भेदों का परिहार करने के लिए संदेश दिया। उनका उद्देश्य था सभी भारतीयों को एक सामान्य आधार पर जोड़कर राष्ट्रीय एकता और सहयोग को बढ़ावा दिया जाए।
  • श्री शंकराचार्य के द्वारा स्थापित दार्शनिक सिद्धांत ने भारतीय समाज में सामाजिक और राष्ट्रीय एकता की भावना को बढ़ावा दिया। उनकी विचारधारा ने एकता और सामरस्य की भावना के संवर्धन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • श्री शंकराचार्य ने भारतीय समाज को विभिन्न धार्मिक, भाषाई, और क्षेत्रीय भेदों से उबारने के लिए समर्थन दिया। उन्होंने समझाया कि सभी लोगों में एक ही आत्मा का आभास है और वास्तविकता में कोई भेद नहीं है। इस प्रकार, उन्होंने भारतीय समाज को एकता और सामरस्य की भावना से प्रेरित किया।
  • श्री शंकराचार्य ने भारतीय संस्कृति और धार्मिक विचार को समृद्ध बनाने के लिए प्रयास किया। उन्होंने राष्ट्रीय एकता और सहयोग की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे भारतीय समाज में सामाजिक और राष्ट्रीय एकता की भावना को बढ़ावा मिला। उनके द्वारा प्रसारित किए गए विचार और सिद्धांत ने भारतीय समाज को समृद्धि, समरसता, और समर्थन की भावना से परिपूर्ण बनाया। इस प्रकार, श्री शंकराचार्य ने भारतीय समाज के राष्ट्रीय अखंडता में महत्वपूर्ण योगदान दिया |

भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण में श्री शंकराचार्य का योगदान

  • श्री शंकराचार्य ने भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण के लिए एक व्यापक  दृष्टिकोण अपनाया। उनका उद्देश्य था कि भारतीय समाज को अपनी संस्कृति, धार्मिकता, और दर्शन के प्रति पुनः जागरूक किया जाए। उन्होंने भारतीय संस्कृति में शिक्षा, ध्यान, और तत्त्वज्ञान के माध्यम से ज्ञान के प्रसार का समर्थन किया।
  • श्री शंकराचार्य ने भारतीय संस्कृति के महत्व को पुनः सार्थक बनाने के लिए वेदांत, उपनिषदों, और ब्रह्मसूत्रों के अध्ययन और प्रचार का समर्थन किया। उन्होंने ध्यान के माध्यम से मानवता के उत्थान का संदेश दिया और सत्य, शांति, और समृद्धि की प्राप्ति के लिए आत्मज्ञान को महत्वपूर्ण माना।
  • श्री शंकराचार्य ने धर्म, साहित्य, कला, और विज्ञान में भारतीय परंपरा को समृद्ध करने के लिए प्रयास किया। उन्होंने विविध साहित्यिक और दार्शनिक ग्रंथों का विशेष महत्व बताया और उनके माध्यम से भारतीय समाज को ज्ञान और समझ का अनुभव कराया।
  • श्री शंकराचार्य का दृष्टिकोण था कि भारतीय समाज को आत्मनिर्भरता, समरसता, और समृद्धि की दिशा में अग्रसर किया जाए। उन्होंने विश्वविद्यालयों, ध्यान केंद्रों, और धार्मिक संस्थाओं की स्थापना की ताकि भारतीय संस्कृति और ज्ञान का प्रसार हो सके।
  • श्री शंकराचार्य के द्वारा शिक्षित अनुयायियों ने भारतीय संस्कृति को उसके मौलिक और आध्यात्मिक मूल्यों के साथ जोड़कर उसे आधुनिकता के साथ मिलाकर एक नई पहचान दी। श्री शंकराचार्य ने भारतीय संस्कृति और धार्मिकता के पुनर्जागरण के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने अपने जीवन के दौरान भारतीय संस्कृति के मूल्यों और धार्मिक सिद्धांतों की महत्वता को बल प्रदान किया।
  • श्री शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों के माध्यम से धर्म, ज्ञान, और आत्मविश्वास को प्रोत्साहित किया। उन्होंने भारतीय समाज को ध्यान, तत्त्वज्ञान, और आत्मसमर्पण की भावना को स्थापित करने के लिए प्रेरित किया।
  • श्री शंकराचार्य ने विवेक, नैतिकता, और आध्यात्मिकता के माध्यम से समाज में जागरूकता को बढ़ावा दिया। उन्होंने विविध धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथों का अध्ययन और प्रचार किया ताकि लोग अपने जीवनको ध्यान, समर्पण, और सेवा के माध्यम से समृद्ध बना सकें।
  • श्री शंकराचार्य ने भारतीय समाज को पुनर्जागरण के माध्यम से समृद्धि, सामरस्य, और सामाजिक न्याय की दिशा में प्रेरित किया। भारतीय संस्कृति के पुनरूत्थान में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

श्री शंकराचार्य और कुंभ मेला

  • शंकराचार्यों का कुंभ मेले के साथ गहरा संबंध है। कुंभ मेला भारतीय हिन्दू धर्म का एक महत्वपूर्ण त्योहार है जो हर तीन साल में चार अलग-अलग स्थलों पर आयोजित किया जाता है। यह मेला अपने महत्वपूर्ण स्नान स्थलों के लिए प्रसिद्ध है, जहां लाखों लोग स्नान करते हैं।
  • कुंभ मेले में श्री शंकराचार्य विशेष धार्मिक एवं सामाजिक कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं, जिनमें उनके अनुयायियों को धार्मिक ज्ञान का प्रसार किया जाता है और वे समाज के उत्थान के लिए प्रेरित किए जाते हैं। इसके अलावा, श्री शंकराचार्य कुंभ मेले के दौरान अनेक धार्मिक वाद-विवादों और सामाजिक मुद्दों पर भाषण भी देते हैं।
  • कुंभ मेला शंकराचार्यों के लिए एक अवसर है अपने अनुयायियों के साथ मिलकर उनको धार्मिक और आध्यात्मिक उत्सव में शामिल होने का। इसके माध्यम से वे भारतीय संस्कृति और धर्म के संरक्षक बने रहते हैं और लोगों को आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं।

श्री शंकराचार्य और शास्त्रार्थ

  • श्री शंकराचार्य मात्र दार्शनिक ही नहीं थे, वे भारत की विचार परम्परा को पुनः प्राण देने वाले समाज सुधारक थे। विशुद्व अद्वेतवाद का दर्शन उनके तर्क एवं तर्कातीत अनुभव से सिद्व था, परन्तु इसे उन्होने किसी राज्य सत्ता के आश्रय से या बलप्रयोग से अथवा भयग्रस्त करने वाले धार्मिक पाखण्ड से स्थापित नहीं किया।
  • उनमें ज्ञान के प्रति अटूट निष्ठा थी।शास्त्रानुसार शिक्षण प्राप्त कर भी उनकी ज्ञानयात्रा समाप्त नहीं हुई, अपने गुरू गोविन्दपाद के आदेशानुसार शास्त्रीय ज्ञान की व्यावहारिक सत्यता का अनुभव जानने वे काशी पधारे। उस समय भारतभूमि पर लगभग 80 के करीब जीवित सम्प्रदाय थे, उन सभी को शास्त्रार्थ मे पराजित कर वैदिक धर्म की स्थापना का उद्देश्य शैक्षणिक धार्मिक वाद-विवाद में विजय मात्र नहीं था, अपितु जीव हित के साथ समाज हित में निर्णय लेने का साहस समाज मे पैदा करना था, इसे हम उनके जीवन-दर्शन में जिये गये पलों से समझ सकते है।
  • श्री शंकराचार्य ने वैदिक कर्मकाण्ड के शुद्ध आचरण पक्ष को चुनौती दी और यज्ञ के वास्तविक अर्थ को जिसमें जीव एवं समाज का हित है, को हमारे सामने प्रकट किया। उनमें अपने वैचारिक विरोधियों के प्रति सम्मान व प्रेम था, अपने गुरू को शास्त्रार्थ में हराकर ग्लानिभाव से आत्मदाह करने वाले मीमांसा दर्शन के आचार्य कुमारिल भट्ट को भी वे रोकने का प्रयास करते है तथा श्राद्ध में सन्यासी की उपस्थिति का विरोध करने वाले आचार्य मण्डन मिश्र को भी तर्क से समझाते है कि जिन नियमों की कोई सार्थकता नहीं है, जो मनुष्य में आत्मज्ञान, समाज कल्याण एवं मोक्ष के लिये प्रवृत करने वाले नहीं हैं, उन्हे त्याग देना चाहिए। कापालिक एवं बौद्व तांत्रिकों को भी वे बलि की निरर्थकता के बारे में तर्क सहित उत्तर देते है।
  • श्री शंकराचार्य ने तत्कालीन हिन्दू समाज को एकजुट किया तथा शैव, शाक्त, वैष्णवों के द्वंद्व समाप्त कर पंचदेवोपासना का मार्ग प्रशस्त किया। पूरे भारत का भ्रमण कर आक्रमणग्रस्त मन्दिरों में विग्रह स्थापना कर लोगों में धार्मिक आस्था का संचार किया। यह धार्मिक आस्था कर्मकाण्डपरक न होकर हृदय को शुद्व व निर्मल करने का साधन रूप थी जो कठिन परिस्थितियों से जुझते समाज की आवश्यकता है।
  • उन्होने जन सामान्य की उचित तर्कसंगत धारणाओं को स्वीकार किया और अपनी समझ, रूचि, क्षमता एवं समाज के अनुकूल निष्ठा पालन का आग्रह किया।
  • शास्त्रार्थ में विजयी होने के पश्चात् उन्होंने स्वयं के सर्वोपरि होने की घोषणा नहीं की बल्कि ज्ञान की यह परम्परा निरन्तर चलती रहे, इसके लिये सन्यासी संघ एवं चारो दिशाओं में चार मठो की स्थापना की। उन्होंने आचार्य बादरायण के ब्रहमसूत्र पर भाष्य लिखा तथा अपने शिष्यों को उस पर वार्तिक लिखने का आग्रह किया, क्योकि उनका मानना था कि समय, देश, काल, रूचि एवं सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप ग्रन्थ लिखे जाते रहने चाहिए।
  • भारतीय समाज बहुजातीय, बहुभाषीय, बहुपंथिक, बहुधार्मिक समाज है, परन्तु यह सांस्कृतिक दृष्टि से एक है। बहुधा इसे बहुसांस्कृतिक समाज कहने व दिखाने का प्रयास होता है जो इस देश को बाँटने और एकसूत्र में बांधने के प्रयासो को रोकने का कार्य करता है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत में बाहर से विभिन्न जातीयों, नस्लो और मजहबों का आगमन हुआ पर भारत भूमि पर रहकर सत्ता के संघर्ष से भिन्न समाज में समन्वित संस्कृति फली फूली।
  • हमारी संस्कृति को बाहरी दर्शन तथा अध्यवेत्ता मिली-जुली संस्कृति कहने की गलती कर सकते हैं, परन्तु हम जिस जीवन शैली को जीते हैं, वह मिली-जुली नहीं मेल-जोल की संस्कृति है। यदि यह मिली-जुली संस्कृति होती तो इसका अस्तित्व संघर्षो एवं युद्वो से नष्ट हो गया होता। इससे नवीन सृजन नहीं हो पाता, परन्तु यह जीवित प्रवाह है। सभी दृष्टियों के विचारक स्वीकारते हैं कि भारत की समन्वयवादी गंगा-जमना तहजीब को मध्यकालीन सन्तों ने प्रगाढ़ किया, परन्तु यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि इन सन्तों की रचनाओं की पृष्ठभूमि मे एकतत्ववाद, ब्रहम एवं जीव की एकता, संसार का माया रूप, अज्ञान का निराकरण, छूताछूत पाखण्ड का विरोध प्रमुख रहा। इस साहित्य की पृष्ठभूमि का अध्ययन किया जाय तो श्री शंकराचार्य के ब्रहमवाद एवं मायावाद का प्रभाव दिखाई देगा यही श्री शंकराचार्य का भारत के सांस्कृतिक उत्थान में अद्वितीय योगदान है।

संदर्भ ग्रंथ

  1. जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य – शिवदास पांडेय
  2. हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान में आदि शंकराचार्य का योगदान- सतीश कुमार भारद्वाज
  3. जगद्गुरु शंकराचार्य – श्रीराम शर्मा आचार्य
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