धर्म रक्षक – सन्त कबीर जी के जीवन का एक प्रसंग यह भी

अमरदीप जौली


जब सन्त कबीर जी ने इसलाम कबूल करने से मना कर दिया तो सिकंदर लोदी के आदेश से जंजीरो में जकड़कर कबीर जी को मगहर लाया गया। वहां लाते ही जब शहंशाह के हुक्म के अनुसार कबीर जी को मस्त हाथी के पैरों तले रौंदा जाने लगा, तब लोई पछाड़ खाकर पति के पैरों पर गिर पड़ी। पुत्र कमाल भी पिता से लिपटकर रोने लगा। लेकिन कबीर जी तनिक भी विचलित नहीं हुए। आंखों में वही चमक बनी रही। चेहरे की झुर्रियों में भय का कोई चिद्द नहीं उभरा। एकदम शान्त-गम्भीर वाणी में शहंशाह को सम्बोधित हो कहने लगा:
माली आवत देखिकर, कलियन करी पुकार।
फूले फूले चुन लिए, काल्हि हमारी बार।
और फिर इतना कहते ही हलके से मुस्कुरा दिया। कबीर जी आगे बोले, ‘मुझे तो मरना ही था; आज नहीं मरता तो कल मरता। लेकिन सुलतान कब तक इस गफलत में भरमाए पड़े रह सकेंगे, कब तक फूले-फूले फिरेंगे कि वह नहीं मरेंगे?’ कबीर जी को जिस समय हाथी के पैरों तले कुचलवाया जा रहा था, उस समय कबीरजी का एक शिष्य भी वहां मौजूद था, उसके मुख से निकल पडा:
अहो मेरे गोविन्द तुम्हारा जोर, काजी बकिवा हस्ती तोर।
बांधि भुजा भलैं करि डार्यो, हस्ति कोपि मूंड में मार्यो।
भाग्यो हस्ती चीसां मारी, वा मूरत की मैं बलिहारी।
महावत तोकूं मारौं सांटी , इसहि मराऊं घालौं काटी।
हस्ती न तोरे धरे धियान , वाकै हिरदै बसे भगवान।
कहा अपराध सन्त हौ कीन्हा , बांधि पोट कुंजर कूं दीन्हा।
कुंजर पोट बहु बन्दन करै , अजहु न सूझे काजी अंधरै।
तीन बेर पतियारा लीन्हा , मन कठोर अजहूं न पतीना।
कहै कबीर हमारे गोब्यन्द , चौथे पद में जन का ज्यन्द।
अर्थात ‘हे गोविन्द! आपकी शक्ति की बलिहारी जाऊं। काजी ने आपको (कबीर को) हाथी से तुड़वाने का आदेश दिया। कबीर की भुजाएं अच्छी तरह से बांधकर डाल दिया गया। महावत ने हाथी को क्रोधित करने के लिए उसके सिर पर चोट मारी। हाथी चिंघाड़कर दूसरी ओर भाग चला। उस प्रकार भागते हुए हाथी की मूरत पर मैं बलिहारी जाऊं। हाथी को भागता देख काजी ने महावत से कहा कि मैं तुझे छड़ी से पीटूंगा और इस हाथी को कटवा डालूंगा। लेकिन हाथी तो उस समय भगवान के ध्यान में मस्त था।
लोग भी कहने लगे कि इस सन्त ने क्या अपराध किया है। जो इसका गट्ठर सा बांधकर हाथी के सामने डाल दिया गया है। लेकिन हाथी बार-बार उस गट्ठर की वन्दना करने लगा। पर अज्ञान से अन्धे हुए काजी को यह देखकर भी कुछ सुझाई न दिया। तीन बार उसने परीक्षा ली, परन्तु कठोर मनवाले काजी को अब भी विश्वास न हुआ। कबीर जी मन में कहने लगे कि गोविन्द तो हमारे हैं, मैं जन का जिन्दा पीर हूं तथा मैंने चौथी बार चौथे पद (मोक्ष) को प्राप्त कर लिया।’
लोग कहते हैं कबीर जी मरने के बाद फूल बन गये और हिन्दू और मुस्लिमो ने उन्हें बराबर बांट लिया, जबकि सचाई यह है कि सिकंदर लोदी ने उन्हें हाथी के पैरो से कुचलवाकर मरवा दिया था, क्योंकि वे सामाजिक कुरीतियों का खंडन करते थे… उपर जो छंद है वह कबीर जी के मरते वक्त ही रचा गया था और कबीर ग्रंथावली के अंत में भी जोड़ा गया है। कबीरदास जी ने जीवित रहते हुए इस्लाम नहीं कुबूल किया फिर उनके नाम पर मजार क्यों ?

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