नदी और वृक्ष- मानव सभ्यता के दो आधार स्तंभ

अमरदीप जौली

पृथ्वी पर मनुष्य के पहले से ही नदी और वृक्ष मौजूद थे। मनुष्य के अस्तित्व के साक्षी हैं यह दोनों, न केवल अस्तित्व अपितु मानव सभ्यता के हर चरण, हर सोपान को निकटता से इन्होंने देखा और अपने साथ लेकर चले नदी और वृक्ष। एक प्रकार से देखा जाए तो जीवित होने का नाम ही नदी है, निरंतरता का सबसे बड़ा उदाहरण नदी से बढ़कर और कोई नहीं। नदी बहते हुए असंख्य जीव जंतुओं को अपने साथ जीवन दान देती है। मनुष्य की तो प्रत्येक गतिविधियां नदी से जुड़ी हुई है। विश्व की अन्य सभ्यताएं फिर मोहनजोदड़ो हो या दजला फरात या नील नदी की सभ्यता, सभी नदी किनारे विकसित हुई। जब-जब जहां नदी का अस्तित्व समाप्त हुआ वहां की सभ्यता भी समाप्त हो गई। सिंधु घाटी की सभ्यता आज भी जीवित है, क्योंकि सिंधु नदी का अस्तित्व है, चीन में यांगशे नदी जीवन रेखा है चीनी सभ्यता का आधार स्तंभ भी है।

नदी है तो मानव अस्तित्व है उसकी वजह से पशुपालन ,मत्स्य पालन, खेती, फल उत्पादन ,कल कारखाने नगर ,ग्राम, वन सभी हैं।नदी है तो राजा है, रंक है शासन है, शासक हैं परंपरा है, रीति रिवाज है, उत्सव हैं, निरंतरता है धन है, तो आक्रमण कर्ता हैं,आक्रमण हुए रक्षा के लिए व्यवस्था है, मानव है, तो पूजा स्थल हैं,मंदिर हैं, मंदिर हैं तो कला केंद्र हैं, कला केंद्र है तो कलाकार हैं, तीर्थ स्थान है, तो यात्राएं हैं मेले हैं, इन सब के कारण अर्थव्यवस्था है। अन्य स्थानों से नदी किनारे आने के लिए महामार्ग हैं, धर्मशालाएं हैं, अस्पताल हैं, क्या नहीं है।

बांग्लादेश की तो बात ही निराली है ,संपूर्ण देश केवल नदियों के कारण ही जीवित है। उत्तर भारत से हर वर्ष लाखों टन उपजाऊ मिट्टी असंख्य छोटी बड़ी नदियां अपने साथ बहा कर लाती है और बांग्लादेश की भूमि को उर्वर करती है,व्यापार व्यवहार सब कुछ इन नदियों की वजह से है अन्यथा कुछ भी नहीं होता।केवल नदी की बात करें तो नदी यानी निरंतरता प्रवाह ,अच्छा बुरा सब कुछ साथ ले चलने की प्रवृत्ति । समय यानी काल का प्रतीक वर्तमान में जीना यही नदी है। इंग्लिश में कहावत है कि “you cannot bath in the same river twice“.अर्थात जिस जल में अपने स्नान किया है वह अब वहां नहीं है आगे चला गया है अब जो स्नान कर रहे हैं वह जल नया है यही है वर्तमान में जीने का प्रतीक। हिंदी गीत आने वाला पल आने वाला है यहां पर सत्य साबित होता है। गंगा ने सगर पुत्रों के उद्धार हेतु स्वर्ग को त्याग कर शिवजी की जटाओं में अपना आश्रय लिया। शांतनु से भीष्म तक सबको देखा अनुभव किया असंख्य राज्य राजवाड़े संत ऋषि मुनि जन सामान्य को साथ लिया, वह निरंतर तटस्थ होकर बह रही है ।भला इससे बड़ी अनासक्ति ,सन्यासी भाव, निष्काम कर्म और क्या हो सकता है ? न केवल गंगा अपितु सभी नदियों की यही कहानी है।

किंतु अब परिस्थितियों बदल गई हैं। जीवन दायिनी नदियां अब दम तोड़ रही हैं। इसका कारण वनों में वृक्षों का अंधाधुंध तोड़ा जाना, तथा शहरों की गंदगी प्रदूषण का नदी में विसर्जित किया जाना। इसके कारण नदी का अस्तित्व समाप्त होने जा रहा है। इन नदियों का अस्तित्व है तो मानव का अस्तित्व है, मानव सभ्यता जीवित है। एक बार नदी मृत हुई तो जैसे इतिहास में सभ्यताएं नष्ट हो गई वैसे ही हमारी सभ्यता भी नष्ट हो जाएगी ।नदियों की पूजा करने की आवश्यकता नहीं है बल्कि नदियों को स्वच्छ रखने की आवश्यकता है जीवित रखने की आवश्यकता है ।क्योंकि अगर हमें जीवित रहना है फलना फूलना है तो नदी को भी जीवित रखना ही होगा।

वृक्ष – मानव जीवन का दूसरा आधार स्तंभ वृक्ष है ।वृक्ष नहीं होते तो धरा वस्त्रहीन होती, धारा का वस्त्र ही वृक्ष है।आदिकाल में मानव जब लिखना पढ़ना तो दूर कपड़ा पहनाना भी नहीं जानता था तब से वृक्ष ही इसका अभिभावक रहा है आश्रय दाता रहा है ।जल के पश्चात भोजन और निवास की समस्या का निदान केवल वृक्ष के माध्यम से अनादि काल से मानव आज तक पूरा करता आ रहा है। किसी कुबेर के खजाने की तुलना अगर अक्षय दान करने वाले से हो तो वह केवल वृक्ष ही होगा।वृक्ष की निरंतरता और जीवित होने का प्रमाण है ।एक बीज से उत्पन्न होकर पौधे से महावृक्ष बनने की प्रक्रिया, यात्रा अपने आप में चमत्कार नहीं तो और क्या है। कार्बन डाइऑक्साइड को शोषित कर ऑक्सीजन में बदलना यानी विष पीकर अमृत देना यह कार्य केवल ईश्वर कर सकता है या वृक्ष ।सूर्य प्रकाश से स्वयं के लिए भोजन बनाना फिर उसे भोजन से फल फूल पत्तियां शाखाएं लकड़ी छाल जड़ सब कुछ निष्काम भावना से केवल मानव की सेवा में अर्पित करते रहना वृक्ष देवता की महिमा है।जिस प्रकार शरीर की कोशिका शरीर में जन्म लेती है फलती फूलती है और एक दिन मृत होती है ।वृक्ष में भी तंतु जन्म लेते हैं और फिर जड़ रूप में बदल जाते हैं।अनवरत अपनी ठंडक का एहसास छाया के माध्यम से जीव जंतुओं पशुओं मनुष्य को देते हुए अखंडित रूप से अविचल धूप ठंड बरखा सहन करते हुए वर्षों तक किसी तपस्वी की तरह केवल दान देते हुए जीते हैं ।प्राकृतिक रूप से यदि नष्ट हो जाए तो भी स्वयं का अस्तित्व इसी मिट्टी में मिला देते हैं क्या वृक्ष से बड़ा कोई देवता हो सकता है? यह प्रश्न अपने आप में अनुत्तरित है।

सनातन धर्म में तो वृक्ष का महत्व इतना विशाल है कि हमने हमारे संपूर्ण जीवन और जीवन शैली का आधार ही वृक्ष माना है ।यहां तक कि हमने अपने बच्चों के नाम तक वृक्षों पर रखे हैं। हमारे दैनिक जीवन की हर गतिविधि वृक्षों को आधार मानकर चली आई है। जन्म से मृत्यु तक ऐसा एक भी कार्य नहीं है जिसमें फूल पत्ती फल लकड़ी का उपयोग नहीं होता हो ।आवास भोजन शरण जीवन मरण तक वृक्षों से संबंधित है। जिस तरह से नदी ही जीवन है इस तरह से वृक्ष अभी जीवन का आधार है ।परंतु आज वृक्षों पर अत्याचार हो रहे हैं जंगल कट रहे हैं।कभी विकास के नाम पर कभी खदानों में खनिजों के नाम पर।एक प्रकार से देखा जाए हम अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मार रहे हैं ।वन संपदा नष्ट हुई तो भूमि और उर्वरापन नष्ट होगा मिट्टी बहकर नदी में जाएगी। नदी का जलस्तर ऊंचा हुआ तो पानी ग्रामों शहरों में घुसेगा, आखिर नुकसान किसका होगा केवल हमारा और हमारा। विषय गंभीर है सोचना पड़ेगा, सभी को ,सभी स्तर पर कदम उठाने पड़ेंगे ।आखिर हमें जीवित रहना है और फलना फूलना है इसके लिए वृक्ष को भी फलना फूलना है और जीवित रहना है।

प्रकाश केवड़े, नागपुर महाराष्ट्र

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