पण्डित परशुरामजी जयपुर के अन्तर्गत खण्डेला के शेखावत सरदार के राजपुरोहित थे। इनकी पुत्री करमैती का मन बचपन से ही भगवान में लग गया था। वह बालिका निरन्तर श्रीकृष्ण का ध्यान तथा नाम- जप किया करती थी। कभी वह ‘हा नाथ! हा नाथ!’ कहकर क्रन्दन करती, कभी कीर्तन करते हुए नाचने लगती और कभी हँंसते-हँसते लोटपोट हो जाती। नन्ही सी बच्ची के भगवत्प्रेम को देखकर घर के लोग प्रसन्न हुआ करते थे। करमैती की इच्छा विवाह करने की नही थी, परन्तु लज्जावश वह कुछ कह नहीं सकी। पिता ने उसका विवाह कर दिया, लेकिन जब ससुराल वाले उसे लेने आये, तब वह व्याकुल हो उठी। जो शरीर श्यामसुंदर का हो चुका, उसे दूसरे के अधिकार में कैसे दिया जा सकता है! उसने प्रभु से प्राथना प्रारम्भ की और जो कातर होकर उन श्री वृन्दावनचन्द्र को पुकारता है, उसे मार्ग अवश्य मिलता है। करमैती को भी एक उपाय सुझा। आधी रात को जब सब लोग सो रहे थे, वह अकेली बालिका चुपचाप घर से निकल पड़ी और वृन्दावन के लिए चल पड़ी। सवेरे घर में करमैती के न मिलने पर हलचल मच गयी। परशुराम पण्डित जानते थे की उनकी पुत्रि कितनी पवित्र है, किन्तु लोकलाज के से अपने यजमान राजा के पास गए। राजा ने उनकी सहायता के लिए चारों ओर घुड़सवार भेजे कि वे करमैती को ढूँंढ लावें। करमैती दौड़ी चली जा रही थी। रात्रि में वह कितनी दूर निकल आई उसे पता ही नही चला। सवेरा होने पर भी वह भागी ही जा रही थी कि अचानक उसने घोड़ां की टप-टप का शब्द सुना। उसे डर लगा कि घुड़सवार उसे ही पकड़ने आ रहे हैं। आसपास न कोई वृक्ष था और न कोई दूसरा छिपने का स्थान किंतु एक ऊँट मरा पड़ा था और रात्रि में भेड़ियों ने उसके पेट का भाग खा लिया था। करमैती की दृष्टि ऊँट के पेट में बनी कन्दरा पर गयी। इस समय वह सांसारिक विषयों की भयंकर दुर्गंध से भाग रही थी। मरे हुए ऊँट के शरीर से निकलने वाली गन्ध उसे विषयों की दुर्गंध के सामने तुच्छ जान पड़ी। भागकर वह ऊँट के पेट में छिप गयी। घुड़सवार पास आये तो दुर्न्ध के मारे उन्होंने उस ऊँट की ओर देखा तक नही। वहाँ से शीघ्रतापूर्वक वे आगे बढ़ गये और अन्त में हताश होकर लौट गये। माता-पिता आदि भी पुत्री के संबंध में निराश हो गये। जिसकी कृपा से विष अमृत हो जाता है, अग्नि शीतल हो जाती है, उसी की कृपा वर्षां करमैती पर हो रही थी। ऊँट के शरीर में वह भूखी-प्यासी तीन दिन तक छिपी रही। उस सड़े ऊँट के शरीर की गंध उसके लिए सुगंध में बदल गयी थी। चौथे दिन वह वहाँ से निकली। करमैती को मार्ग नहीं पता था, किंतु जो सबका एकमात्र मार्गदर्शक है, उसकी ओर जाने वाले को मार्ग नहीं ढूँढ़ना पड़ता। मार्ग ही उसे ढ़ँढ लेता है। 18 दिन भूखी-प्यासी रहने के बाद, खुद भगवान श्रीकृष्ण ने संत वेश में प्रकट होकर उन्हें भोजन कराया। ऐसे ही करमैती को साथ मिल गया और वह वृन्दावन पहुँच गईं। वहाँ पहुँच कर मानो वह अनन्द के सागर में मग्न ले गयी। जब परशराम पण्डित को अपनी पुत्री का कहीं पता न लगा तो वे वृन्दावन आये। लेकिन भला वृन्दावन में करमैती को जानता कौन था कि पता लगता। एक दिन वृक्ष पर चढ़कर परशुराम पण्डित इधर उधर देख रहे थे, तभी उनकी दृष्टि ब्रहमकुण्ड पर एक वैरागिनी पर पड़ी। वहाँ जाने पर उन्होंने देखा की साधुवेश में करमैती ध्यान मग्न बैठी है, उसकी आँखों से अश्रुधार बह रही है। पुत्रि की बाहरी दीन हीन दशा देखकर पिता को शोक हुआ, परंतु उसके भगवत्प्रेम को देखकर वे अपने को धन्य मानने लगे। कई घण्टों बैठे रहने पर भी जब करमैती का ध्यान भंग नही हुआ, तब पिता ने उसे हिला-डुलाकर जगाया। वे उसे घर चलकर भजन करने का आग्रह करने लगे। करमैती ने कहा- पिताजी! यहाँ आकर भी कोई लौटा है? मैं तो व्रजराजकुमार के प्रेम में डूब कर मर चुकी हँ। अब मुदां यहाँ से उठे कैसे?”‘ दूसरी मीरों बाई करमैती बाई की समाधी आज भी वृन्दावन धाम में बनी हुई है।
बालभक्त करमैती बाई, दूसरी मीरा
Leave a comment