विदेशी विचार और हिंसा पर आधारित वामपंथ को बौद्धिक धरातल पर चुनौती देने वालों में श्री सीताराम गोयल का नाम प्रमुख है। यद्यपि पहले वे स्वयं कम्यूनिस्ट ही थे; पर उसका खोखलापन समझने के बाद उन्होंने उसके विरुद्ध झंडा उठा लिया। इसके साथ ही वे अपनी लेखनी से इस्लाम और ईसाई मंसूबों के विरुद्ध भी सबको जाग्रत करते रहे। 16 अक्तूबर, 1921 को जन्मे श्री सीताराम गोयल मूलतः हरियाणा के निवासी थे। उनकी जीवन-यात्रा नास्तिकता, आर्य समाजी, गांधीवादी और वामंपथी से प्रखर और प्रबुद्ध हिन्दू तक पहुंची। इसमें रामस्वरूप जी की मित्रता ने निर्णायक भूमिका निभायी। इस बारे में उन्होंने एक पुस्तक ‘मैं हिन्दू क्यों बना ?’ भी लिखी। वामपंथ के खोखलेपन को उजागर करने के लिए सीताराम जी ने उसके गढ़ कोलकाता में ‘सोसायटी फाॅर दि डिफेन्स आॅफ फ्रीडम इन एशिया’ नामक मंच तथा ‘प्राची प्रकाशन’ की स्थापना की। 1954 में कोलकाता के पुस्तक मेले में उन्होंने अपने वामपंथ विरोधी प्रकाशनों की एक दुकान लगायी। उसके बैनर पर लिखा था – लाल खटमल मारने की दवा यहां मिलती है। इससे बौखला कर वामपंथी दुकान पर हमले की तैयारी करने लगे। इस पर उन्होंने कोलकाता में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक श्री एकनाथ रानाडे से सम्पर्क किया। एकनाथ जी ने उन्हें सुरक्षा का आश्वासन देकर समुचित प्रबंध कर दिये। इस प्रकार उनका संघ से जो संबंध बना, वह आजीवन चलता रहा। एकनाथ जी की प्रेरणा से सीताराम जी ने 1957 में खजुराहो से ‘भारतीय जनसंघ’ के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा; पर उन्हें सफलता नहीं मिली। चुनाव के दौरान ही उन्हें ध्यान में आ गया कि जाति, भाषा, परिवार और क्षेत्रवाद पर आधारित इस चुनाव व्यवस्था में बौद्धिकता का कोई स्थान नहीं है। अतः राजनीति को अंतिम नमस्ते कर वे सदा के लिए दिल्ली आ गये।दिल्ली आकर उन्होंने अपना पूरा ध्यान लेखन और प्रकाशन पर केन्द्रित कर लिया। साप्ताहिक ‘आर्गनाइजर’ में उन्होंने श्री अरविन्द के विचारों पर कई लेख लिखे। प्रधानमंत्री नेहरू तथा उनके मित्र रक्षामंत्री कृष्णामेनन की देशविरोधी गतिविधियों पर लिखित लेखमाला बाद में पुस्तक रूप में भी प्रकाशित हुई। सीताराम जी के चिंतन, मनन और लेखन की गति बहुत तेज थी। वे मानते थे कि युद्ध में विचारों के शस्त्र का भी बहुत महत्व है। उन्होंने हिन्दी और अंग्रेजी में अपनी तथा अन्य लेखकों की सैकड़ों पुस्तकें छापकर ‘वाॅयस आॅफ इंडिया’ के बैनर से उन्हें लागत मूल्य पर पाठकों को उपलब्ध कराया। तथ्यों के प्रति अत्यधिक जागरूकता उनके लेखन और प्रकाशन की सबसे बड़ी विशेषता थी। वे जो भी लिखते थे, उसके साथ मूल संदर्भ अवश्य देते थे। उनके प्रकाशन से जो पुस्तकें छपती थीं, उसमें भी वे इसका पूरा ध्यान रखते थे। नये लेखकों को प्रोत्साहन देने के लिए वे उनकी पांडुलिपियों को बहुत ध्यान से देखकर आवश्यक सुधार करते थे। सीताराम जी का यों तो संघ से बहुत प्रेम था; पर वे इस बात से कुछ रुष्ट भी रहते थे कि स्वयंसेवक अध्ययन में कम रुचि लेते हैं। वे हर बात तथ्यों की कसौटी पर कसकर ही बोलने और लिखने का आग्रह करते थे। इसके लिए वे इधर-उधर की बजाय सदा मूल और विश्वनीय संदर्भ ग्रन्थों का सहयोग लेने को कहते थे।सीताराम जी स्वयं तो बौद्धिक योद्धा थे ही; पर घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी निभाते हुए उन्होंने कई नये योद्धा भी तैयार किये। 1998 में अपने मित्र और मार्गदर्शक रामस्वरूप जी के निधन से उनके जीवन में स्थायी अभाव पैदा हो गया और दो दिसम्बर, 2003 को वे भी उसी राह पर चले गये।
साभार: पवन अग्रवाल, गाज़ियाबाद