विवेकानंद अपने गुरु से विशेष लगाव रखते थे। जब उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु हुई उसके पश्रचात उन्होंने अपने गुरु के कार्यों को आगे बढ़ाने उनकी शिक्षा उनके आदर्शों को जन-जन तक पहुंचाने का संकल्प लेते हुए विदेश जाने का निश्चय किया। वह आशीर्वाद और विदाई लेने माँ शारदा के पास पहुंचे। माँ को अपने गुरु के उद्देश्यों को बताया। मां ने अपने पुत्र को तत्काल आदेश नहीं दिया। वह दुविधा में थी कि वह अपने पुत्र को विदेश भेजे या नहीं? वह चुपचाप अपने कार्यों में लग गई, जब वह सब्जी बनाने की तैयारी कर रही थी तब उन्होंने विवेकानंद से चाकू मांगा। विवेकानंद उस चाकू को लेकर आते हैं और मां को बड़े ही सावधानी से देते हैं। मां उसके इस व्यवहार से अति प्रसन्न होती है और मुस्कुराते हुए आशीर्वाद के साथ अपने गुरु के कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए कहती है। विवेकानंद जी को आश्चर्य होता है। वह उनकी प्रसन्नता और इस कृत्य पर प्रश्न करते हैं आखिर उन्होंने पुत्र को विदेश भेजने के लिए कैसे निश्चय किया? तब उनकी मां ने बताया तुमने मुझे जिस प्रकार चाकू दिया चाकू की धार तुमने अपनी और पकड़ा और उसका हत्था मुझे सावधानी से थमाया। अपने लिए खतरा उठाते हुए भी तुमने मेरी सुरक्षा की चिंता की। अपने इस आचरण से तुमने साबित कर दिया कि तुम कठिनाइयां स्वयं झेलते हो और दूसरों के भले की चिंता करते हो। इससे पता चलता है कि तुम सभी का कल्याण कर सकते हो। मनुष्य की मनुष्यता यही है कि वह अपने से ज्यादा दूसरों की भलाई की चिंता करे। यह आत्म निर्मित बंधन ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है।’ स्वामी विवेकानंद मां शारदा के सामने नतमस्तक हुए और आशीर्वाद लेकर अमेरिका गए।
मां शारदा की परीक्षा
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