वनवासियों के सच्चे मित्र जगदेवराम उरांव

अमरदीप जौली

भारत के वनवासियों के बीच हजारों संस्थाएं काम करती हैं। उनमें से कई का उद्देश्य सेवा के नाम पर पैसा बनाना या फिर धर्मान्तरण है। उन्हें आदिवासी कहकर वे शेष हिन्दुओं के अलग भी करते हैं। दूसरी ओर जन सहयोग पर आधारित ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ है, जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से श्री बालासाहब देशपांडे ने 1952 में शुरू किया था। इसके द्वारा संचालित स्कूल, छात्रावास, मंदिर और चिकित्सालय जैसे सेवा केन्द्रों से लाखों वनवासी संपर्क में आये। श्री जगदेवराम उरांव उनमें से एक थे। उनका जन्म नौ अक्तूबर, 1949 को छत्तीसगढ़ में जशपुर नगर के पास कोंगड़ो उरांव गांव में श्री अखनू राम एवं श्रीमती पुजू बाई के निर्धन लेकिन धर्मप्रेमी परिवार में हुआ था। जशपुर कल्याण आश्रम का केन्द्र है। 1962 में वे वहां के छात्रावास में आये और 1966 में हाई स्कूल किया। क्रमशः स्नातक होकर उन्होंने शिवपुरी (म.प्र.) के तात्या टोपे शारीरिक महाविद्यालय से डिग्री ली और कल्याण आश्रम के विवेकानंद विद्यालय में खेल के शिक्षक हो गये। इस दौरान उन्होंने राजनीति शास्त्र में एम.ए. भी किया।जगदेवरामजी अध्यात्म के क्षेत्र में गहिरा गुरुजी से प्रभावित थे। वे बचपन से ही परम्परागत वनवासी पर्वों में बड़े उत्साह से भाग लेते थे। छात्रावास से कुछ कार्यकर्ता उनके गांव में शाखा लगाने जाते थे। इसमें अन्य बच्चों के साथ शिशु जगदेवराम भी जाते थे। कल्याण आश्रम के छात्रावास में उन्हें बालासाहब देशपांडे का भरपूर प्रेम मिला। 1966, 67 और 68 में उन्होंने संघ के तीनों वर्ष के प्रशिक्षण भी प्राप्त किये। इसके बाद वे प्रतिवर्ष संघ शिक्षा वर्ग में शिक्षक होकर जाते थे। आपातकाल में वे जशपुर और फिर रायगढ़ जेल में रहे। आपातकाल के बाद 1978 में उन्होंने नौकरी छोड़कर पूरा समय कल्याण आश्रम को देने का निश्चय किया। इस प्रकार उनका प्रचारक जीवन प्रारम्भ हो गया।इससे पूर्व कल्याण आश्रम में अधिकांश कार्यकर्ता बाहरी राज्यों से होते थे। जगदेवरामजी पहले वनवासी प्रचारक थे। उनके प्रयास से फिर सैकड़ों वनवासी युवक तथा युवतियां प्रचारक तथा पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने। 1978 में संस्था को अखिल भारतीय स्वरूप देने पर बालासाहब देशपांडे का प्रवास पूरे देश में होने लगा। उनके सहायक के रूप में जगदेवरामजी भी साथ जाते थे। इससे देश भर के वनवासियों की समस्याएं उन्हें पता लगीं। 1987 में वे उपाध्यक्ष, 1993 में कार्यकारी अध्यक्ष तथा 1995 में देशपांडेजी के निधन के बाद अध्यक्ष बने। विनम्रता और सादगी उनके जीवन में सदा बनी रही।उनके कार्यकाल में हजारों वनवासियों ने पूरी श्रद्धा से हिन्दू के नाते शबरी कुंभ, सिंहस्थ कुंभ, प्रयागराज कुंभ आदि में भाग लिया। कई बड़े वनवासी सम्मेलन भी हुए। इनमें 2002 में जनजाति धर्म संस्कृति सुरक्षा मंच, 2003 में विशाल वनवासी सम्मेलन (झाबुआ), 2004 में जागता पूर्वांचल, 2006 में पूर्वोत्तर जनजाति युवा सम्मेलन (गुवाहाटी) आदि विशेष हैं। काम में कई नये आयाम जोड़कर दीर्घकालीन ‘जनजाति दृष्टि पत्र’ बनाया गया। खेल प्रतियोगिताओं से वनवासी युवाओं का आत्मविश्वास बढ़ा। कई वनवासी श्रद्धा स्थलों पर उन्होंने मेले शुरू कराये। मिशनरियों की सक्रियता के कारण वे पूर्वोत्तर भारत पर बहुत ध्यान देते थे। वे पंचायत में पांचवा जन वनवासी को मानते थे। उरांव समाज में अविवाहित व्यक्ति को अच्छा नहीं मानते। उसके दाह संस्कार में लोग शामिल नहीं होते; पर वे अविवाहित ही रहे। उनके दिल की बाइपास सर्जरी हो चुकी थी। फिर भी वे प्रवास करते रहे। 15 जुलाई, 2020 को हुए भीषण हृदयाघात से जशपुर में ही उनका निधन हुआ। आज भारत की हर जनजाति में कल्याण आश्रम का काम है। इसमें जगदेवरामजी का विशेष योगदान है।

साभार: पवन अग्रवाल गाज़ियाबाद

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