प्रसंग उसे समय का है जब चीनी यात्री ह्वनसांग भारत की यात्रा के पश्चात जल-मार्ग से अपने देश को लौट रहा था। कुछ भारतीय युवक भी इस विदाई में नाव पर उसके साथ थे और सामान में थे सैकड़ों मन्त्र-द्रष्टा महापुरुषों, तत्वेत्ताओं की अगणित वर्षों की कठोर तपश्चर्या से प्रणीत भारतीय संस्कृति के बहुमूल्य ग्रन्थ। मार्ग में सागर की उत्ताल तरंगे उछलकर परस्पर टकराने लगीं। नाव को भयंकर तूफान ने आ घेरा। नाव में पानी भरने लगा और वह लहरों के थपेड़ों से डावांडोल हो रही थी। जीवन-रक्षा का प्रश्न सम्मुख आ उपस्थित हुआ। ह्वेनसांग आत्मरक्षा के लिए उन मूल्यवान ग्रन्थों को जल में प्रवाहित करने ही वाला था कि भारतीय जवानों में से एक बड़े आत्मविश्वास से बोल उठा। “लाखों वर्षों की संचित यह ग्रंथमाला भारतीयों की अमूल्य निधि है। यह ज्योतिपुंज बन आज विदेशों में अपनी श्रेष्ता सिद्ध करने और अज्ञान में भटके करोड़ों मनुष्यों के हृदय आलोकित करने जा रही है। इसे सागर की लहरों का ग्रास नहीं बनने दिया जाएगा!” “जय स्वदेश, जय संस्कृति माता” के नाद के साथ उस तरुण ने सागर की उफनती लहरों की गोद में अपने को सौंप दिया। एक के बाद एक, सभी युवक नाव का भार हल्का करने जल की अनंत गहराई में पैठ गये! ह्वेनसांग आश्चर्यमिश्रित भाव से दिखता टह गया। उसकी आंखों में आँसू थे और मस्तक झुका था संस्कृति के पुजारियों तथा अनन्य राष्ट्र भक्तों के प्रति। भारत की इस गौरवगाथा को हृदय में संजोये वह अपने निर्दिष्ट स्थान की ओर बढ़ गया।
सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा
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