28 मार्च, 2025
भारतीय ज्योतिष शास्त्र एवं कालगणना के अनुसार, भारतीयों का नव वर्ष ‘वर्ष प्रतिपदा’ से आरंभ होता है। यही हमारा राष्ट्रीय नववर्ष भी है। ‘वर्ष प्रतिपदा’ अर्थात् नव वर्ष का प्रारंभ चैत्र-शुक्ल प्रतिपदा से होता है। चैत्र-शुक्ल प्रतिपदा को ही मानव सृष्टि का आरंभ हुआ था, इसीलिए इसे सृष्टि संवत् या ब्रह्म संवत् भी कहते हैं। ज्योतिष विद्या के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘हिमाद्रि’ से इसकी पुष्टि होती है-
‘चैत्रमासि जगद् ब्रह्म ससजेप्रथमोऽहनि। शुक्ल पक्षे समग्रन्तु सदा सूर्योदये गति।’
अर्थात् चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथम दिवस सूर्योदय काल में सृष्टिकत्र्ता ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की।
इस संदर्भ में भास्कराचार्य अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सिद्धांत शिरोमणि’ में लिखते हैं कि चैत्र मास को शुक्ल पक्ष के प्रारंभ में रविवार के दिन से मास, वर्ष व युग एक साथ प्रारंभ हुए, इसीलिए भारत में प्रचलित सभी संवत् चैत्र-शुक्ल प्रतिपदा से ही आरंभ हुए। इनमें सम्राट् विक्रमादित्य का ‘विक्रमी संवत्’ सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रचलित हुआ। विक्रमी संवत् सूर्य सिद्धांत पर आधारित है। यदि सृष्टि संवत् के आरंभ से आज तक की गणना की जाए तो सूर्य सिद्धांत के अनुसार एक दिन का भी अंतर नहीं पड़ता। अत: विक्रम संवत् शुद्ध वैज्ञानिक सत्य पर टिका हुआ है।
प्रचिलत संवतों में सबसे प्राचीन युगाब्द है। युगाब्द कलियुग के आरंभ का सूचक है जिसे पांच हजार से अधिक वर्ष हो गए हैं। सम्राट् विक्रमादित्य ने आक्रमणकारी शकों को परास्त करके भारत भूमि से निकाल बाहर किया था, उसी की याद में आज के दिन विक्रमी संवत् प्रारंभ हुआ और विक्रमादित्य ने ‘शकारि’ उपाधि धारण की। विक्रमी संवत् कलि संवत् के 3044 वर्ष बाद, शाके शालिवाहन संवत् के 135 वर्ष पूर्व और सन् ईस्वी के 57 वर्ष पूर्व आरंभ हुआ था। इस साल 30 मार्च को वर्ष प्रतिपदा से नया वर्ष प्रारंभ होगा जिसके साथ ही विक्रमी संवत् 2082 आरंभ हो जायेगा। आज भी भारतीय समाज धार्मिक, सामाजिक और मांगलिक कार्यों के शुभ अवसर पर संवत् और भारतीय तिथियों का प्रयोग करता है। संकल्प मंत्र में कहते हैं
ॐ अस्य श्री विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्राहृणां द्वितीये परार्धे
अर्थात् महाविष्णु द्वारा प्रवर्तित अनंत कालचक्र मे वर्तमान ब्रह्मा की आयु का द्वितीय परार्ध-वर्तमान ब्रह्मा की आयु के 50 वर्ष पूरे हो गये हैं।
श्वेत वाराह कल्पे- कल्प याने ब्रह्मा के 51 वें वर्ष का पहला दिन है।
वैवस्वतमन्वंतरे- ब्रह्मा के दिन में 14 मन्वंतर होते हैं उस मे सातवां मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है। अष्टाविंशतितमे कलियुगे – एक मन्वंतर में 7 चतुर्युगी होती हैं, उनमें से 28वीं चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है। कलियुगे प्रथमचरणे- कलियुग का प्रारंभिक समय है। कलिसंवते या युगाब्दे- कलिसंवत् या युगाब्द वर्तमान में 5126 चल रहा है, 5127 वर्ष प्रतिपदा को प्रारम्भ होगा। जम्बु द्वीपे, ब्रह्मावर्त देशे, भारत खंडे- देश प्रदेश का नाम। अमुक स्थाने – कार्य का स्थान। अमुक संवत्सरे – संवत्सर का नाम। अमुक अयने – उत्तरायन/दक्षिणायन। अमुक ऋतौ – वसंत आदि छह ऋतु हैं। अमुक मासे – चैत्र आदि 12 मास हैं। अमुक पक्षे – पक्ष का नाम (शुक्ल या कृष्ण पक्ष)। अमुक तिथौ – तिथि का नाम। अमुक वासरे – दिन का नाम। अमुक समये – दिन में कौन सा समय। उपरोक्त में अमुक के स्थान पर क्रमश : नाम बोलने पड़ते है। जैसे अमुक स्थाने, में जिस स्थान पर अनुष्ठान। किया जा रहा है उसका नाम बोल जाता है । उदहारण के लिए दिल्ली स्थाने, ग्रीष्म ऋतौ आदि। अमुक – व्यक्ति – अपना नाम, फिर पिता का नाम, गोत्र तथा किस उद्देश्य से कौन सा काम कर रहा है, यह बोलकर संकल्प करता है। भारतीय धर्मशास्त्रों में कालगणना का विवेचन बहुत बारीकी और वैज्ञानिक ढंग से किया गया है। संकल्पित मांगलिक कार्यों के अवसर पर कल्प, मन्वन्तर, युगादि से लेकर संवत्, ऋतु, मास, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्र, ग्रह आदि का मन्त्रोच्चार शुभ माना जाता है।
अपने नाम से संवत् चलाने की भी शास्त्रों में एक प्रक्रिया का वर्णन है। सम्राट् विक्रमादित्य ने जनता का सारा ऋण राजकोष से चुकाकर सारी प्रजा को ऋण मुक्त कर दिया था, क्योंकि उस काल में राजा को अपने नाम का संवत् चलाने के लिए यही शास्त्रीय नियम था। प्रयागराज में वात्स्यायन भारद्वाज की अध्यक्षता में धर्म संसद ने इसी दिन से सम्राट् विक्रमादित्य को अपने नाम से संवत् चलाने का अधिकार दिया। इसके अतिरिक्त सम्राट् विक्रमादित्य ने सभी 12 ज्योतिर्लिंगों का पुनरुद्धार कराया और उनमें से श्रेष्ठ महाकालेश्वर(उज्जैन) और सोमनाथ मन्दिर सौराष्ट्र का पुर्ननिर्माण किया। अयोध्या में रामन्दिर का पुर्ननिर्माण कराया। भारत की पश्चिमी अन्तिम सीमा पर हिन्दूकुश के पास प्रथम शक्तिपीठ ‘हिंगुलाक्षामाता’ का मन्दिर बनावाया और दूसरे शक्तिपीठ ‘कामाख्या देवी’ का मन्दिर भी बनवाया। उन्होंने असम से हिन्दूकुश (पेशावर) तक विशाल सडक़ मार्ग बनवाकर दोनों शक्तिपीठों को जोड़ दिया (आज कल इसे जी.टी. रोड कहा जाता है)। इस प्रकार भारत की सीमाओं को सामरिक दृष्टि से सुरक्षित किया।
भारतीय कालगणना से जुड़े तथ्य
एक चतुर्युगी की कुल समयावधि – 43 लाख 20 हजार वर्ष
सत युग की कुल समयावधि – 17 लाख 28 हजार वर्ष
त्रेता युग की कुल समयावधि – 12 लाख 96 हजार वर्ष
द्वापर युग की कुल समयावधि – 8 लाख 64 हजार वर्ष
कलियुग की कुल समयावधि – 4 लाख 32 हजार वर्ष
कलियुग सम्वत् – 5127 आरंभ
1. उत्तरायण का आरम्भ मकर संक्रान्ति से होता है और दक्षिणायन का आरम्भ कर्क संक्रान्ति से होता है।
2. वर्ष में छ: ऋतुएं होती हैं: (1) वसन्त (चैत्र-वैशाख), (2) ग्रीष्म (ज्येष्ठ-आषाढ़), (3) वर्षा (श्रावण-भाद्रपद), (4) शरद् (आश्विन-कार्तिक), (5) हेमन्त (मार्गशीर्ष-पौष), (6) शिशिर (माघ-फाल्गुन)।
3. पंचांग में केवल एक वर्ष का विचार होता है। भारतीय पंचांग में मास दो प्रकार के हैं – 1. एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या तक का समय ‘चान्द्र मास’ कहलाता है। ऐसे 12 चान्द्र मासों से 354 दिनों का एक चान्द्र वर्ष होता है। 2. एक संक्रान्ति से दूसरी संक्रान्ति तक के समय को सौर मास कहते हैं और ऐसे 12 सौर मासों का एक सौर वर्ष माना जाता है। दिन की गणना एक सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक मानी जाती है।
4. भारतीय पंचांग में मासों के नाम का आधार वैज्ञानिक है अर्थात् भारतीय महीनों का नाम चन्द्रमा की स्थिति के नाम पर किया गया है। पूर्णिमा को चन्द्रमा जिस नक्षत्र में होता है उसी नक्षत्र के आधार पर उस मास का नाम रखा गया है, जैसे –
नक्षत्र का नाम मास का नाम वेद कालीन
चित्रा चैत्र मधु
विशाखा वैशाख माधव
ज्येष्ठा ज्येष्ठ शुक्र
उत्तराषाढ़ा आषाढ़ शुचि
श्रवण श्रावण नभ
उत्तराभाद्रपद भाद्रपद नभश्च
अश्विनी आश्विन इष
कृतिका कार्तिक ऊर्ज
मृगशिरा मार्गशीर्ष सह
पुष्य पौष सहरथ
मघा माघ तप
उत्तरा फाल्गुणी फाल्गुन तपस्य
हमारी कालगणना से जुड़े वैज्ञानिक तथ्य:- यह सौर मंडल के ग्रहों पर आधारित है जिनकी सत्यता स्वयं सिद्ध है। मुख्य रूप से हमारी कालगणना पृथ्वी, सूर्य और चन्द्रमा की स्थितियों व गतियों पर आधारित है।
अत्यन्त प्राचीन:- हमारी कालगणना वैदिक काल जितनी ही प्राचीन है। वैदिक साहित्य में यज्ञों के लिए उपयुक्त समय निर्धारित करने के लिए वेदांग ज्योतिष का विकास हुआ था। उस काल में उत्तरायण-दक्षिणायन, संवत्सर, परिवत्सर, इदा वत्सर, अनुवत्सर तथा इतावत्सर नामक पांच संवत्सरों का बोध, अमावस्या तथा पूर्णमासी का यज्ञीय महत्त्व भी ज्ञात हो चुका था। ये सब अवधारणाएँ सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि ग्रहों की गतियों के वैज्ञानिक ज्ञान पर ही आधारित हैं।
अत्यन्त विस्तृत:- हमारी कालगणना अल्पतम से विशालतम तक विस्तृत है जिसमें ‘त्रुटि’ (1 सैकंड का 33750वां भाग) से लेकर कल्प (1000 महायुग) अर्थात 4 अरब 32 करोड़ सौर वर्ष तक की गणना का विधान है। ऐसी सुविधा या विधान विश्व की अन्य किसी भी कालगणना में नहीं है।
अमानुषिक:- हमारी कालगणना किसी व्यक्ति विशेष के जन्म या उसके किसी कृत्य विशेष से आरंभ नहीं होती। इसका प्रारंभ सृष्टिï के प्रारंभ के साथ ही हो जाता है, इसलिए यह ‘अमानुषिक’ है।
काल गणना का आरम्भ:- माधवाचार्य कृत ‘कालमाधव:’ में ब्रह्मïपुराण का एक श्लोक उपलब्ध है जिसके अनुसार ‘ब्रह्मïजी ने चैत्रमास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को लंका में सूर्योदय के समय संसार की सृष्टिï की थी और उसी समय से कालगणना चालू की थी। उसी समय ग्रहों, वारों, मासों, ऋतुओं तथा संवत्सरों का भी आरंभ हुआ, इसलिए तभी से चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को भारत में वर्ष प्रतिपदा मनाने की प्रथा चली आ रही है।
वर्ष प्रतिपदा का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व:- पृथ्वी माता का जन्म और ब्रह्मïजी द्वारा कालगणना का आरंभ इसी दिन हुआ। भारतीय नववर्ष का प्रथम दिन, नवरात्रों का प्रथम दिन, भगवान् श्री रामचन्द्र का राज्यारोहण, धर्मराज युधिष्ठिïर का राज्याभिषेक, शकारि विक्रमादित्य द्वारा छाटा संवत् प्रारंभ, सन्त झूलेलाल का जन्म दिन, गुरू अंगददेव का पावन जन्म दिन, महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा आर्यसमाज की स्थापना तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. केशवराज बलिराम हेडगेवार की पवित्र जयन्ती – ये सभी पावन दिवस/अवसर वर्ष प्रतिपदा को ही पड़ते हैं।
संकल्प मन्त्र:- हमारी सभी धार्मिक क्रियाओं में उच्चारण किया जाने वाला संकल्प मंत्र भी सृष्टिï-आरंभ के साथ देशकाल का सूत्ररूप में परिचय भी देता है कि देश-काल की सन्धि के किस बिन्दु-विशेष पर किसी कार्य को करने का संकल्प किया जा रहा है। अर्थात् किस देश में, किस काल में, कौन व्यक्ति, किस काम को, किस उद्देश्य से करना चाहता है। यह भी हमारी वैज्ञानिक गणना पर ही आधारित है।
सौर गणना और चन्द्रा गणना:- भारतीय पंचांगों में काल की गणना सूर्य और चन्द्र दोनों के अनुसार होती है।
(अ) सौर गणना:- पृथ्वी लगभग एक लाख किलोमीटर प्रति घंटे की गति से सूर्य की परिक्रमा पूरी करती है जिसमें 365.25 दिन का समय लगता है। यह एक सौर वर्ष का परिमाण है। इसके 12वें भाग को एक सौर मास और एक सौर मास के 30वें भाग (अर्थात् सौर वर्ष के 360वें भाग को एक सौर दिन कहते हैं। इस प्रकार एक सौर मास में 30 दिन 10.5 घंटे (लगभग) और एक सौर दिन लगभग 24 घंटे 21 मिनट का हुआ।
(आ)चन्द्र गणना:- चन्द्रमा पृथ्वी के गिर्द अपना चक्र 29 दिन 12 घंटे में पूरा करता है, अत: चान्द्र मास की सीमा 291/2 दिन हुई। इसलिए लगभग एक वर्ष में 12 दिन का अन्तर पड़ जाता है। चन्द्रमा आकाश में नक्षत्रों को मापता है (उपर्युक्त गति), इसी से मास और अर्धमास (पक्ष) बनते हैं। एक मास में 30 तिथियां होती हैं। 15वीं तिथि कोपूर्णिमा तथा 30वीं तिथि को अमावस्यां कहते हैं। मास पूर्णिमान्त होते हैं।
9. उत्तरायरण का आरंभ मकर संक्रांति से और दक्षिणायन का आरंभ कर्क संक्रांति से होता है।
10. सौर मास संक्रांति से आरंभ होते हैं।
11. दिन का विस्तार सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक होता है अर्थात् हमारी गणना में दिन का आरंभ सूर्योदय से मान्य है, न कि आधी रात को 12 बजे के बाद। एक अन्य गणना
1 विपल = 1 गुरु अक्षर का उच्चारण काल (0.4 सैकंड) 10 गुरु अक्षर = 1 असु (4 सैकंड)
6 असु = 1 पल (24 सैकंड) 7 अहोरात्र = 1 सप्ताह
15 अहोरात्र = 1 पक्ष 2 पक्ष = 1 मास
2 मास = 1 ऋतु 3 ऋतु = अयन
2 अयन = 1 वर्ष चार युग व उनकी आयु
1-कलियुग = 432000 वर्ष (कलियुग की बीती आय – 5126 वर्ष) (कलियुग की शेष आयु – 426874)
द्वापर युग = 864000 वर्ष त्रेता युग = 1296000 वर्ष सतयुग = 1728000 वर्ष
4320000 वर्ष = 1 महायुग 1000 महायुग (4320000000 वर्ष) = 1 कल्प
(एक कल्प में 14 मनवन्तर होते हैं। अब तक छ: मनवन्तर बीत चुके हैं और ‘वैवस्वत’ नामक सातवां मनवन्तर चल रहा है)
कल्पाब्द 1,97,29, 49,127, सृष्टि संवत 1,95,58,85,126, सृष्टि संवत् 1,96,08,53,127, युधिष्ठिर संवत 5162, कलियुगाब्द 5127, श्रीकृष्ण जन्म संवत् 5261, सप्तर्षि संवत् 5101, विक्रम संवत 2082, शालिवाहन शक संवत 1947, नया विक्रमी सवंत् 2082 चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, ईस्वी सन 30 अप्रैल 2025 से प्रारम्भ हो रहा है।