अंततः पुनः उठ खड़ा हुआ आठ सौ वर्ष के बाद नालंदा विश्वविद्यालय

अमरदीप जौली

सभ्यता के संघर्ष साल या दशक में नहीं शताब्दियों सहस्त्राब्दियों में पूरे होते हैं। अंततः बर्बरता पर सभ्यता की ही विजय होती है।

सभ्यता के आंगन में बख्तियार नाम के उत्पाती जानवर घुसते हैं तो तोड़फोड़ ही मचाते हैं, तहस-नहस ही करते हैं। इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं! वे पशु होते हैं, उत्पात ही उनका धर्म होता है। लेकिन हर नालन्दा के भाग्य में एक नरेन्द्र होता है, जो रोपता है उजड़े हुए आंगन में तुलसी का पौधा! लगाता है तहस-नहस दुआर पर केले का गाछ! अपने हाथ से चुन कर फेंक देता है तबाही के चिन्ह, और बांधता है नई भित, नया छप्पर, नया द्वार… सभ्यता की नदी समय समय पर स्वयं अपनी सफाई कर लेती है।

किसी छोटी सी पराजय के बाद, एक असफलता से टूट कर हम कहने लगते हैं कि अब कुछ नहीं हो सकता। वस्तुतः ऐसा मान लेना हमारी व्यक्तिगत पराजय होती है। सफलता-असफलता, विजय-पराजय हमारी यात्रा के पड़ाव भर हैं, महत्वपूर्ण है हमारी यात्रा! धर्म के पथ पर हमारा निर्बाध चलते रहना, चलते जाना…

नालन्दा के पुनर्निमाण में उन असंख्य बूढ़े पूर्वजों का भी योगदान है जिन्होंने औरंगजेब के बर्बर राज्य में भी धर्म नहीं छोड़ा। जिन्होंने केवल यह सोच कर दुखों से भरा जीवन काट लिया कि अच्छा! एक न एक दिन दुख खत्म हो ही जायेंगे… हुए न? सुख के दिन उनके हिस्से में भले न आये हों, उनके बच्चों के हिस्से में आये न? यही होता है।

महाभारत के चक्रव्यूह में घिर कर वीरगति पाते अभिमन्यु सामान्य दृष्टि में पराजित होते दिखते हैं, पर उनकी यह पराजय ही पांडवों के विजय का द्वार खोलती है। पुरंदरे की संधि में अपना अधिकांश राज्य हारते शिवाजी महाराज पराजित होते दिखते हैं, पर एक दिन उन्ही का ध्वज लेकर निकला कोई बालाजी बाजीराव अटक से कटक तक अपनी सीमा खींच देता है। भगवा के तले समूचा हिंदुस्तान आया क्योंकि यह शिवाजी के साथ साथ समूचे राष्ट्र का स्वप्न था। सभ्यता का कोई स्वप्न अधूरा नहीं रहता।

सोमनाथ से लेकर विश्वनाथ तक सभ्यता बार बार पुनर्निर्माण करती रही है। ठीक वैसे हीं जैसे जेठ-बैसाख में जल गयी धरती को हर बार सावन हरे रङ्ग से रङ्ग जाता है। जैसे जेठ की आग सत्य है, वैसे ही सावन की बरसात भी सत्य है। सृजन प्रकृति का धर्म है, और प्रकृति के धर्म को ही हमने अपना धर्म माना है। इसी कारण हम सत्य सनातन है, क्योंकि न प्रकृति समाप्त होगी और ना ही हम…

राम मंदिर 500 वर्ष बाद बनता है, नालन्दा विश्वविद्यालय 800 वर्ष बाद। यूँ ही किसी दिन कोणार्क में पुनः होगी सूर्यदेव की प्रतिष्ठा, मुल्तान के उस ऐतिहासिक शिवालय में कोई करेगा महामृत्युंजय मंत्र का जप, सिंधु के तट पर गूजेंगे वेदमन्त्र… सभ्यता की यात्रा ऐसे ही निरंतर बख्तियार से नरेंद्र की ओर चलती रहती है।

लेखक: सर्वेश तिवारी

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