“एक चिंतन स्वयं से”

अमरदीप जौली

लेखक(चिंतक)-आशुतोष द्विवेदी

ब्राह्मिक परम्परा में जीवन और मरण एक सतत प्रक्रिया है जो शाश्वत है। इसके मूल में एक तत्व विद्यमान है जिसे ब्रह्म कहा जाता है जिसे अमरत्व प्राप्त है अर्थात इसका कोई सीमांकन नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में शरीर एक कोरी परिकल्पना है जिसमें न तो स्थायित्व है और न ही प्रभाविता। हां उपयोगिता तो है। इसका सीधा अन्तर्सम्बन्ध हम साध्य और साधन के रूप में मूल्यांकित कर सकते हैं। हम इस साधन को स्वविवेक के अनुसार उसी तरह साध्य को में समाहित कर सकते हैं जिस प्रकार गिलहरी द्वारा रामसेतु में। लेकिन इस साधन के रक्षोपाय में हम रजोरूपी भाव को ज्यादा प्रभावी बना चुके हैं जबकि शाश्वत तो केवल सत् ही हो सकता है। इस अखाड़े में विलीनता से ही हमारे साध्य में भटकाव का प्रतिबिम्ब झलकता है। यह प्रश्न अब तक इस अन्तर्रूपी मन से निरुत्तरित रहा है कि इसकी क्या प्रभाविता है? यदि प्रभाविता है तो उपाय भी होंगे।यहीं भटकाव जीवन और मरण के बीच अल्पकाल को दीर्घायुत्व प्रदान करने में युक्तियुक्त निर्बन्धन के स्थान पर सहायक सिद्ध हो रहा है।इसी रजोरूपी भाव ने साधन को अब तक पूर्णतया अति तामसिक स्थिति में स्थिर कर दिया है जिसमें इतना अन्तर्द्वन्द है जितना कि कलि एवं सत् के बीच की प्रवाहिता के अन्त को सुनिश्चित करना। अपितु यह भी अन्त एक अतिशयोक्ति ही प्रतीत होता है।इसको हम दूसरे शब्दों में या पुनर्मूल्यांकन करें तो दृष्टि की प्रभाविता से ही बाहर।इस स्थिति ने हमें स्थिर कर दिया है कि इस द्वन्द से कैसे निकला जाए या इससे कोई पुन:अंकुरण हो जिससे एक गतिमान मार्ग का अनुभव हो।इस नितान्त मार्ग के चिन्तन में मन अत्यधिक भ्रमणशील हो चुका है लेकिन अब तक कोई भी आधारिक तत्व सहायक सिद्ध नहीं हो रहा।साध्य तक की पहुंच के मार्ग का कैसे चयन हो यह भी एक विचारणीय चिंतन है। अगर इस साध्य की प्राप्ति इतनी सुलभ होती तो हर कोई इसे वैचारिक रूप से ग्रहण करने में इतना कमजोर ग्रहण कैसे होता लेकिन इसकी प्राप्ति में कुछ मार्गों ने थोड़ी बहुत तो जरूर और कुछ ने इस साधनरुपी शरीर का सम्पूर्णतया त्याग कर युक्तियुक्त प्रयास किया लेकिन अब तक कोई आमूलचूल परिवर्तन प्रतिबिम्बित हुए? अगर हुए तो वे स्वयं से भी ज्यादे विश्वसनीय क्यों नहीं बन पाए।साध्य प्राप्ति में अन्य की आवश्यकता क्यों? दरअसल इसके प्राति में इतने मार्ग गमनीय हुए कि साधन स्वयं से ही भ्रमित हो गया। इतना कि क्या अनुकरणीय है क्या नहीं। अन्तत: यहीं भाव प्रकट होता है कि इस सतत् प्रक्रिया में हम भी गमनीय बने रहें और कोई बाधक सिद्ध न हो । स्वयं से, स्वयं के लिए ही इस भाव का बीजारोपण करते रहें जिससे दूसरे प्रभावित न हों, अगर हों तो द्वन्द के मनोयोग से बाहर निकलने में सहायक हों। बाकी मन का क्या है यह भी तो प्रवाहित होता ही रहेगा अन्यथा सततता में योगदान कैसे स्थापित करेगा।

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