गुजरात की बहादुर बेटियां

Nikunj Sood

निर्मला सोनी
जीवन क्षणभंगुर है एवं मृत्यु एक शाश्वत सत्य. इसका एहसास मानव को सबसे अधिक श्मशान घाट पर होता है. कितना मुश्किल है एक व्यक्ति को चिता के हवाले करना जो कुछ देर पहले हम सबके बीच था. नारी का कोमल स्वभाव इस दुःख को सह नहीं पाएगा, यही सोचकर हिन्दू संस्कृति में बेटियां श्मशान घाट नहीं जातीं. वहीं कुछ बेटियां ऐसी भी हैं, जिन्होंने कोरोना काल में स्वयं आगे बढ़कर शवों के अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी संभाली. इस कहानी में आज हम आपको मिलाएंगे राष्ट्र सेविका समिति की ऐसी ही स्वयंसेवी बहनों से.
बात अप्रैल 2021 की है, जब कोविड की दूसरी लहर से हाहाकार मचा हुआ था‌. संक्रमण के डर से लोग अपने-अपने घरों में डरे सहमे, दुबके बैठे थे. कोरोना पाज़िटिव शवों के अंतिम संस्कार के लिए उनके अपने परिजन ही तैयार नहीं थे‌. ऐसे में गुजरात- कच्छ के सुखपर गांव की हिना वेलानी, रिंकू वेकरिया, सुमिता भूडिया, तुलसी वेलानी समेत राष्ट्र सेविका समिति की 10 बहनों ने अद्भुत साहस का परिचय देते हुए घाट की सफाई, चिता सजाने से लेकर पी.पी.ई. किट पहनकर अंतिम विदाई देने के काम को बखूबी अंजाम दिया.
यह सिलसिला तब आरंभ हुआ, जब 15 अप्रैल, 2021 की शाम भुज तहसील के विकास अधिकारी का फोन संघ के स्वयंसेवक रामजी वेलानी के पास आया स्वयंसेवकों से मदद के लिए, ताकि भुज के सरकारी अस्पताल में अंतिम विदाई की राह देख रहे ऐसे शवों की अंतिम क्रिया सम्पन्न कराई जा सके, जिनके अंतिम संस्कार के लिए परिजनों ने ही मुंह मोड़ लिया था, व सरकारी कर्मचारी भी पर्याप्त नहीं थे. इस विकट अवस्था को देखकर संघ कार्यकर्ताओं ने मिलकर इस कार्य के लिए पुरुष स्वयंसेवकों की एक टीम बनाई तो उनकी बेटी हिना ने भी इसमें सहयोग करने की इच्छा जाहिर की. पिता का मन थोड़ा आशंकित था कि इस कठोर कार्य को क्या हिना संपन्न कर पाएंगी? किंतु उनकी आशंका गलत साबित हुई, हिना के साथ-साथ राष्ट्र सेविका समिति की नौ अन्य बहनें भी इस काम में जुट गईं.
अपना अनुभव साझा करते हुए सौराष्ट्र प्रांत की राष्ट्र सेविका समिति की प्रांत प्रचार प्रसार प्रमुख हिना बताती हैं कि, हम 3-3 की टोली में काम कर रहे थे. नियमित श्मशान घाट की सफाई से लेकर, भीषण गर्मी में पी.पी.ई. किट पहनकर अंतिम संस्कार करने में हमें थोड़ी भी कठिनाई महसूस नहीं हुई. गांव के लोगों ने भी पूरा सहयोग किया, जिनके घरों में लकड़ी थी उन्होंने लकड़ी दी, कहीं से घी आया तो कहीं से कपूर.
लॉकडाउन का समय था, भुज के अस्पताल व आसपास के गांवों के सभी शवों का अंतिम संस्कार हमारे गांव सुखपर के घाट पर ही होता था. लगभग 45 दिन चले इस अभियान में, 450 से अधिक शवों को सम्मानजनक विदाई स्वयंसेवकों की टोली एवं समिति की बहनों ने मिलकर दी.
जब काम धीरे-धीरे आगे बढ़ा तो कई युवा इस कार्य में जुट गए और अग्निदाह का काम संभाल लिया तो समिति की इन बहनों ने माँ अन्नपूर्णा का रूप धारण कर क्वॉरेंटाइन लोगों के टिफिन की जिम्मेदारी संभाल ली. लॉकडाउन में सेनेटाइजर के साथ सिलाई मशीन से मास्क बनवा कर घर-घर बांटना, अकेले असहाय वृद्धों के घर पहुंच कर फ्रूट व खाने से लेकर दवाइयां पहुंचाना, पुलिस से लेकर समग्र तंत्र को सभी प्रकार का सहयोग करने से लेकर ऐसी कोई सेवा नहीं थी, जो कोरोना काल में सेविकाओं ने नहीं की हो.
यह सब कैसे कर पाती हैं, यह पूछने पर एक ही प्रत्युत्तर आता था – संघ के पारिवारिक संस्कार व समिति के प्रशिक्षण वर्गों की वजह से सब कुछ सम्भव है. तभी कहते हैं “संघे शक्ति युगे युगे”.
https://www.sewagatha.org/sewadoot/gujrat-ki-bahdur-betiya-hindi

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