जगतगुरु आदि शंकराचार्य -जन्म और बाल्य -काल भाग २

Deepak Kumar Dwivedi

केरल देश – भारतवर्ष के सूदूर दक्षिण में केरल है। आज यह त्रिनाड़्कुर , कोचीन तथा मालाबार नामक देशो में विभक्त है । यह प्रदेश अपनी विचित्र सामाजिक व्यवस्था के लिए उतना ही प्रसिद्ध है जितना अपनी प्राकृतिक शोभा के लिए प्राय: पूरा प्रान्त समुद्र के किनारे पर बसा हुआ है । यहां की प्राकृतिक छटा इतनी मनोरम है । कि उसे देखकर दर्शक का चित बरबस मुग्ध हो जाता है , मन में विचित्र शान्ति का उदय हो जाता है । इस देश में हरियाली इतनी अधिक है कि दर्शको के नेत्रों के लिए अनुपम सुख साधन उपस्थित हो जाता है । इसी प्रांत के कालटी ग्राम आचार्य शंकर का जन्म हुआ । यह स्थान आज भी अपनी पवित्रता के लिए केरल में ही नहीं , प्रत्युत समग्र भारत में विख्यात है। कोचीन शोरानूर रेलवे लाइन पर आलवाई नामक एक छोटा एक छोटा सा स्टेशन है । यहीं से यह गांव पांच छह नील की दूरी अवस्थित है । पास ही आलवाई नदी बहती है और इस ग्राम की मनोरमता और भी बढ़ाती है यह गांव आजकल कोचीन राज्य के अंतर्गत है और राज्य की ओर से पाठशाला तथा अंग्रेजी स्कूल की स्थापना छात्रों के विद्याभ्यास के लिए की गई है । इस स्थान की पवित्रता को अक्षुण्ण रखने के लिए श्रृंगेरी मठ के अनेक उपाय किए हैं । आचार्य ने अपनी माता का दाह संस्कार जिस स्थान पर किया, वह स्थान आज भी दिखलाया जाता है । स्थान स्थान पर शिव मंदिर बने हैं। पर्वत की श्रेणियां पास ही हैं । कालटी की प्राकृतिक स्थित दर्शक के उदय में सामंजस्य तथा शांति का उदय करती है । यह आश्चर्य की बात नहीं कि स्थान के एक निवासी ने दुख से संतप्त प्राणियों के सामने शांति तथा अत्यधिक सुख पाने का अनुपम उपदेश दिया था । शंकर के माता पिता पन्नियूर नाम के निवासी थे जिसका उल्लेख शशल ग्राम के नाम से भी मिलता है। पीछे वे लोग कालटी में आकर बस गए थे ।

जन्म स्थान का निर्णय

शंकर के जन्म स्थान के विषय में एक अन्य भी मत है आनंद गिरि के कथनानुसार इनका जन्म तमिल प्रांत के सुप्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र चिदंबरम में हुआ था परंतु अनेक कारणों से यह मत मुझे मान्य नहीं है। समग्र केरल प्रांत की मान्यता है कि शंकर की माता पजुरपन्नै इल्लम नामक नम्बुदरी ब्राम्हण कुटुम्ब की थी। और यह कुल सदस्य त्रिचुर के पास निवास कर रहा है। यह कुटुम्ब में केरल प्रांत का निवासी है आता शंकराचार्य को केरलीय मानना ही न्यायसंगत होगा। वह राजस्थान जहां शंकर ने अपनी माता का दाह संस्कार किया था आज भी कालटी के पास वर्तमान है । एक अन्य प्रमाण से भी चिदम्बरम के जन्म स्थान होने का पर्याप्त खंडन हो जाता है। माध्व मत के आचार्यों के जीवन चलित के विषय में एक माननीय पुस्तक है जिसका नाम मणिमञ्जरी । इसके रचयिता त्रिविक्रमभट्ट ने भी भी शंकर का जन्म स्थान कालटी ही बताया है मणिमंजरी के निर्माता अद्वैतवादी न थे प्रत्त्युत द्वैत मत के मानने वाले थे । उनके ऊपर किसी प्रकार के पक्षपात का दोस्त आरोपित नहीं किया जा सकता। यह तो प्रसिद्धि है कि बद्रीनाथ पशुपतिनाथ के प्रधान पुजारी नम्बुदरी ब्राम्हण ही होते आए हैं । यही पुजारी आजकल रावल जिनके नाम से विख्यात हैं। वर्तमान मंदिर की प्रतिष्ठा आचार्य शंकर ने की थी तथा इनकी पूजा वैदिक विधि से संपन्न करने के लिए उन्होंने अपने ही देश के वैदिक ब्राह्मण को इस कार्य के लिए नियुक्त किया था। तब से लेकर आज तक इन मंदिरों के पुजारी केरल देश के नाम नम्बुदरी ब्राम्हण ही होते हैं । एल सब कारणों से यह प्रतीत होता है कि आचार्य शंकर केरल देश के निवासी थे तथा नम्बुदरी ब्राम्हण थे। शंकर दिग्विजयो के पोशाक इन निस्संदिग्ध प्रमाणो के रहते कोई भी व्यक्ति कालटी को छोड़कर चिदम्बरम को आचार्य के जन्म स्थान होने का गौरव कथामपि प्रदान नहीं कर सकता है ।

जाति परिचय

कालटी ग्राम में नम्बुदरी ब्राम्हणों के कुल में आचार्य का आविर्भाव हुआ। ये नम्बुदरी ब्राम्हण लोग निष्ठावान सदाचार संपन्न और वैदिक कर्मकाण्ड के विशेष अनुरागी होते हैं । भारतवर्ष में केवल यही ऐसा प्रांत है जहां आज भी उन प्राचीन नीतियों और रूढ़ियों का अनुसरण किया जाता है । पंचम वर्ष से लेकर अष्टम वर्ष तक का ब्राह्मण बालक का उपनयन दान, गुरू गृह मे प्रवेश तथा वेद का अभ्यास आज भी देखा जाता है । इन ब्राह्मणों के सामाजिक आचार और व्यवहार में अनेक विचित्रता दिखलाई पड़ती है । सब आचारो मैं सबसे विचित्र होता है इनका विवाह। इनका जेष्ठ पुत्र ही नम्बुदरी ब्राह्मण कन्या से विवाह करता है। और पैतृक संपत्ति का उत्तराधिकारी होता है। दूसरे पुत्र लोग नायर स्त्रियों से विवाह करते, तथा उनके पुत्र नायक जाति के अन्तर्भुक्त होते हैं। नायक जाति ना तो ब्राह्मण ही है, और ना ठीक शुद्र ही है किंग टू ब्राह्मण और शूद्र जाति का मिश्रण है । इनकी एक कन्या बहु विवाह कर सकती है एक ही कन्या के नायर और नम्बुदरी पति होने में किसी प्रकार की बाधा नहीं होती है यहां की कन्या ही पृथ्वी और संपत्ति की उत्तराधिकारी होती है । इस प्रकार की अनेक विचित्र समाजिक प्रथाएं आज भी प्रचलित है। आचार्य शंकर ऐसे ही नम्बुदरी ब्राम्हण की संतान थे

माता पिता का परिचय

शंकर के पिता का नाम शिवगुरु था। अपने पिता विद्याधिप या विद्याधीराज की एकमात्र संतान थे । शिवगुरु के घर में शास्त्र अध्ययन करते वैराग्य युक्त हो गए थे। घर में लौटने का समय बीत गया था पिता ने देखा कि पुत्र गृहस्थी से मुंह मोड़कर वैराग्य का सेवन करना चाहता है । उन्होंने पुत्र की इच्छा ना रहने पर ही उनका समावर्तन संस्कार करवाया और उसे घर लाए । अपने गांव के पास ही किसी छोटे गांव के रहने वाले मघ पंडित की कन्या से उन्होंने शिव गुरु का विवाह कर दिया। इस कन्या का नाम भिन्न भिन्न बतलाया जाता है माधव ने इनका नाम सती तथा आनन्दगिरि ने विशिष्ट बतलाया है । आचार्य शंकर के ही माता पिता है । शिवगुरु एक अच्छे तपोनिष्ट वैदिक थे । बड़े आनंद से अपनी गृहस्थी चलाते थे। क्रम से वृद्धावस्था उपस्थित होने लगी, परंतु पुत्र के मुख दर्शन का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। उनके चित्र में पुत्र का मनोरम मुख देखने की इच्छा और मनोहर तोतली बोलनी सुनने की लालसा लगी रही। अनेक ऋतुए आयी और चली गई परंतु शिवगुरु के हृदय में पुत्र पाने की लालसा आयी पर गयी नहीं अंततोगत्वा द्विज दंपत्ति ने तपस्या को कल्याण का परम साधन मानकर उसी साधन में चित चित्र लगाया।

आचार्य शंकर के जन्म के विषय में अनेक विचित्र बातें लिखी। शंकर महात्म्य प्रतिपादन करने की लालसा का इस विषय में जितना दोष है उतना ही दोष उनके गुणों की अवहेलना कर निर्मूल बातें गढ़ने की अभिलाषा का। इस विषय में आचार्य के निर्णय को के समान आचार के अंध भक्तों का दोष कम नहीं है । आनन्दगिरि का कहना है कि आचार शंकर का जन्म चिदम्बरम के क्षेत्र देवता भगवान महादेव के परमानुग्रह का सुखद परिणाम था पुत्र के ना होने के उदास होकर जब शिवगुरु ने घर की दृष्टि से नाता तोड़कर जंगल का रास्ता पकड़ा, तब विशिष्टा देवी ने महादेव की उपासना को एकमात्र लक्ष्य बनाया। वह रात दिन शिव की अर्चा में व्यस्त रहती । वहीं पर महादेव की माहिती कृपा से शंकर का शुभ जन्म हुआ । इसी विषय में द्वैत वादियों ने सांप्रदायिकता के मोहजाल में पढ़कर जिस मनोवृति का परिचय दिया है वह नितांत हे तथा जघन्य है। मणि मंजरी के अनुसार शंकर एक दरिद्र ब्राह्मणी विधवा के पुत्र थे। इस बात का पर्याप्त खंडन शंकर के उत्तरकालीन चरित्र से ही हो जाता है। यह तो प्रसिद्ध बात है कि शंकर के हृदय में अपनी महनीय माता के लिए प्रगाढ़ ममता थी , विशुद्वि भक्ति थी इतनी भक्ति कि उन्होंने संन्यास धर्म की अवेहलना स्वीकार की , परन्तु अपनी माता का दाह संस्कार करने से वे कथमपि विरत नहीं हुए। यदि मणिमंजरी में उल्लेखित घटना में सत्य की एक कणिका भी होती , तो बहुत संभव था कि शंकर दिग्विजय के रचयिता भक्त लेखक इसे अलौकिकता के रंग में रंगकर छिपाने का उद्योग करते । आता इस घटना की असत्यता स्पष्ट प्रतीत हो रही है , इस विशेष तमाड़ से पुष्ट करने की अभी अधिक आवश्यकता नहीं है ।

शिवगुरु की तपस्या

शिवगुरु तथा सती देवी शंकर के बड़े भारी भक्त थे। कालटी के पास ही वृष नामक पर्वत अपना सिर ऊपर उठाए खड़ा था । उस पर केरल के नरेश राजशेखर ने भगवान चन्द्रमौलीश्वर महादेव का मंदिर बनवाकर तन्नामक शिवलिंग की स्थापना की थी । शिवगुरु ने नदी में यथावत स्नान कर चन्द्रमौलीश्वर की एकाग्र मनसे उपासना करना प्रारंभ किया । भगवान आशुतोष प्रसन्न हो गए । एक रात को उन्होंने भक्त के सामने ब्राह्मण के रूप में उपस्थित होकर पूछा क्या चाहते हो ? भक्तों का पुत्र के लिए लड़ाई हृदय से झठ बोल उठा संसार की सारी संपत्ति मुझे न चाहिए । मुझे चाहिए केवल पुत्र जो मेरे कुल की मर्यादा तथा परंपरा की रक्षा में समर्थ हो । तब महादेव ने कहा सरगुन संपन्न सरवन पुत्र चाहते हो तो वह दीर्घायु नहीं होगा। यदि दीर्घायु पुत्र, तो वह सर्वज्ञ नहीं होगा । ऐसी इविषय दशा में तुम क्या चाहते हो ? सर्वज्ञ पुत्र या दीर्घायु पुत्र ? शिवगुरु ने कहा मुझे सर्वज्ञ पुत्र ही दीजिए भगवान । दीर्घायु परंतु मूर्ख पुत्र लेकर क्या करूंगा? भगवान ने भक्तों की प्रार्थना सुन ली। वर्षों की तपस्या सफल हुई। वैशाख शुक्ल पक्ष तिरुपति पंचमी तिथि को सती देवी के गर्भ से आचार्य शंकर का जन्म हुआ ।

मातृभक्ति

शंकर बड़े भारी मातृभक्त थे । माता के लिए भी हुए इस संसार में कोई स्नेह का आधार था वह स्वयं शंकर थे स्वयं शंकर। एक दिन माता स्नान करने के लिए नदी तीर पड़ गई नदी का घाट था घर से दूर। वार्धक्य के कारण दुर्बलता , दोपहर की कड़ी धूप में , गर्मी के मारे रास्ते में बेचारी बेहोश होकर गिर पड़ी । शंकर उसे उठाकर घर लाये । उनका ह्रदय माता के इस क्लेश से विदीर्ण होने लगा । उन्होंने अपने कुल देवता भगवान श्रीकृष्ण से रातभर प्रार्थना की। प्रातः काल लोगों ने आश्चर्य भरे नेत्रों से देखा पूर्णा नदी अपना किनारा काटकर कालटी के बिल्कुल पास चली आई थी। श्री कृष्ण ने मातृ भक्त बालक की प्रार्थना सुन ली । अलवाई नदी की धारा परिवर्तित हो गई। पुत्रवत्सला जननी ने अपने एकमात्र पुत्र की कुंडली दधीचि,तितल आदि अनेक दैवज्ञो से दिखायी और उनके कोमल हृदय को गहरी ठेस लगी जब इन दैवज्ञो ने उनसे कहा कि शंकर अल्पआयु होगा और आंठवे तथा सोहलवे में वर्ष में उनकी मृत्यु का विषम योग है । माता की बड़ी अभिलाषा थी के पुत्र का विवाह शीघ्र कर दिया जाए तथा पुत्र को देखकर वह अपने जीवन को सफल बनावे। परंतु पुत्र की भावना बिल्कुल दूसरी और थी। माताओं ने प्रवृत्ति मार्ग में लाकर गृहस्थ बनाने के लिए व्यग्र थी । उधर शंकर निवृत्ति मार्ग का अवलंबन कर संन्यास लेने की चिंता में थे । अल्पायु होने की दैवज्ञो वाणी उनके चित को संसार से और विरक्त कर दिया । उन्होंने संन्यास लेने का दृढ़ संकल्प किया ।

सन्यास

शंकर ने संकल्प तो कर लिया , परंतु माता के सामने उसे तुरंत प्रकट करने से कुछ विरत हुए । उनके हृदय में एक महान द्वंद्व युद्ध मच रहा था । एक ओर था माता का स्नेह उस विधवा माता का, इसके जीवन का आधार शंकर को छोड़कर दूसरा कोई नहीं था और दूसरी ओर परमार्थ प्राप्त कर लेने की बदृढ़ अभिलाषा जिससे मानव जीवन सफलता प्राप्त कर लेता । कुछ दिनों तक उन्होंने इस मानस युद्ध की उपेक्षा की परंतु आगे चलकर उन्होंने देखा कि परमार्थ की भावना उन्हें संसार से दूसरी ओर खींच रही थी। तब उन्होंने अपना अभिप्राय माता से कह सुनाया । उस विधवा के हृदय पर गहरी चोट पड़ी। एक तो तापस पति के अकाल में वियोग , दूसरे एकमात्र यशस्वी पुत्र के वियोग की आशंका । उसका हृदय टूक टूक हो गया। शंकर के हजार समझाने पर भी उसने इस प्रस्ताव पर अपनी सहमति नहीं दी परंतु मेरे मन कुछ और काटता के कुछ और ।

विचित्र घटना एक घटना ने शंकर के प्रस्ताव को सफल बना दिया । एक दिन माता और पुत्र दोनों स्नान करने के लिए आलवाई नदी में गए थे । माता स्नान कर घाट पर खड़ी कपड़े बदल रही थी । इतने में उसके पुत्र के करूणा चीत्कार ने उसका ध्यान बलात् खींच लिया । उसने दृष्टि फेरकर देखा तो क्या देखती है कि उसके प्यारे शंकर को भीमकाय मगर पकड़े हुए हैं और उसे निगल जाने के लिए तैयार हैं ‌। असहाय बालक आत्मरक्षा करने में तत्पर है परन्तु कहां वह कोमल छोटा बालक और कहां वह भयानक खूंखार घड़ियाल । शंकर के सब प्रयत्न विफल हुए । माता के सब उद्योग व्यर्थ सिद्ध हुए। बड़ा करुणा जनक दृश्य था। असहाय माता घाट पर खड़ी फूट फूटकर विलख रही थी और उधर उसका एकमात्र पुत्र प्राण रक्षा के लिए भयंकर मगर के पास झटपटा रहा था। शंकर ने अपना अंतकाल आया जानकर माता से सन्यास लेने की अनुमति मै तो अब मर ही रहा हूं । आप संन्यास ग्रहण करने के लिए मुझे आज्ञा दीजिए जिससे सन्यासी बनकर मैं मोक्ष का अधिकारी बन सकूं । वृद्धा जननी ने पुत्र की बातें सुनी और अगत्या सन्यास लेने की अनुमति दे दी। उधर आसपास के मछुवे तथा मल्लाह दौड़कर आये। बड़ा हो हल्ला मचाया । संयोगवश मगर ने शंकर को छोड़ दिया । बालक के जीवन का यह अष्टम वर्ष था भगवत्कृपा से वह काल के कराल गाल से किसी प्रकार से बच गया। माता के हर्ष की सीमा न थी । उसी आनन्दातिरेक में उसे इस बात की सुध न रही कि उसका ब्रह्मचारी शंकर अब सन्यासी बन कर घर लौट रहा है ।

शंकर ने उस समय आठवें वर्ष में ही आपत् संन्यास अवश्य लें लिया था परंतु विधिवत संन्यास की बलवती इच्छा थी । अतः किसी योग्य गुरु की खोज में वे अपना घर छोड़कर बाहर जाने के लिए उद्यत हुए । उन्होंने अपनी संपत्ति अपने कुटम्बियो में बांट दी और माता के पालन पोषण का भार उन्हें सुपुर्द कर दिया । परंतु विदाई के समय स्नेहमयी माता अपने पुत्र को किसी प्रकार जाने देने के लिए तैयार न थी । अन्त में शंकर ने माता की इच्छा के अनुसार यह दृढ़ प्रतिज्ञा कि मैं तुम्हारे अंत काल में अवश्य उपस्थित रहूंगा और अपने हाथों से तुम्हारा दाह संस्कार करूंगा। माता की इच्छा रखने के लिए पुत्र ने सन्यास धर्म की अवहेलना स्वीकार कर ली , परंतु माता के चित को क्लेश नहीं पहुंचाया । शंकर के ग्रहत्याग के समय कुलदेवता श्री कृष्ण लीला स्वप्ने दिया कि तुम्हारे चले जाने पर यह नदी हमारे मंदिर को गिरा देगी। अतः किसी निरापद स्थान पर पहुंचा दो । तदनुसार शंकर ने भगवान की मूर्ति को तीरस्थित मंदिर से हटाकर ऊंचे ठेले पर रख दिया और दूसरे ही दिन प्रस्थान किया । जय श्री कृष्ण दीपक कुमार द्विवेदी

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