शंकर ब्रह्मवेता गुरू की खोज में उत्तर भारत की ओर चले। पातजल महाभाष्य के अध्ययन के समय उन्होंने विद्यागुरु के मुख सुन रखा था । कि योगसूत्र के प्रणेता महाभाष्यकार पतंजलि इस भूतल पाठ गोविंदत्पाद के नाम से अवतीर्ण हुए हैं तथा नर्मदा के तीर पर किसी अज्ञात गुफ़ा में अखंड समाधि में बैठे हुए हैं । उन्होंने सुखदेव के शिष्य गौड़पादाचार्य से अद्वैत वेदांत का यथार्थ अनुशीलन किया है । इन्हीं गोविन्दाचार्य से वेदांत की शिक्षा लेने के लिए शंकर ने दूसरे ही दिन प्रातः काल प्रस्थान किया। कई दिन के अनंतर शंकर
श्रंगेरी की विचित्र घटना – एक दिन की बात है कि दोपहर का सूर्य आकाश में प्रचण्ड रूप से चमक रहा था । भंयकर ग्रामी के कारण जीव जंतु बिह्लल हो उठे थे । शंकर भी एक वृक्ष की शीतल छाया में बैठकर मार्ग की थकावट दूर कर रहे थे । सामने जल से भरा एक सुंदर तालब था । उसमें से निकलकर मेढक के छोटे छोटे बच्चे धूप में खेल रहे थे पर गर्मी से व्याकुल होकर पानी में डुबकी लगाते थे । एक बार जब वे खेलते खेलते बैचैन हो गए तब कहीं से आकर एक कृष्ण सर्प उनके सिर पर फण फंसाकर धूप में उनकी रक्षा करने लगा। शंकर इस दृश्य देखकर विस्मय से चकित हो गए । स्वाभाविक वैर का त्याग जन्तु जगत् की विचित्र घटना है । इसने उनके चित पर विचित्र प्रभाव डाला । उनके हृदय में स्थान की पवित्रता जम गयी । सामने एक पहाड़ का टीला दीख पड़ा जिस पर चढ़ने के लिए सीढ़ियां बनी थी उन्ही सीढ़ियों से ऊपर चढ़ गये और उपर शिखर पर निर्जन कुटी में बैठकर तपस्या करनेवाला एक तामस को देखा और उनसे इस विचित्र घटना का रहस्य पूछा। तपस्वी जी ने बताया कि यह श्रृंगी ऋषि का पावन आश्रम है । इसी कारण यहां नैसर्गिक शान्ति का अखण्ड राज्य है । जीव जंतु अपने स्वाभाविक वैर भाव को भुलाकर यहां सुखपूर्वक वितरण करते हैं । इन वचनों का प्रभाव शंकर के उपर खासा पड़ा और उन्होंने दृढ़ संकल्प किया कि मैं अपना पहला मठ इसी पावन तीर्थ में बनाऊंगा। आगे चलकर शंकराचार्य ने इसी स्थान पर अपने संकल्प को जीवित रुप दिया । श्रृंगेरी मठ की स्थापना का यही सुत्रपात है ।
दृष्ट्वा पुरा निजसहस्त्रमुखीमभैषुरन्ते वसन्त इति तापपहाय शान्त: ।
एकाननेन भुवि सस्त्ववर्तीय शिष्यान् अन्व प्रहीन्ननु स पतञ्जलिस्त्वम् ।
गोविन्द के निवास स्थान में मतभेद हैं । माधव का कथन है ५/१५ आश्रम नर्मदा नदी के तीर पार था गोविंदनाथ वनमिन्दुभवातटस्थम्। चिद् विलास के अनुसार यह स्थान बद्रीनाथ है
क्रमेण बदरी प्राप यत्र विष्णुस्तपस्यति ।।३५।।
निस्तमस्कमिवादित्य भावन्तमिव पावकम् ।
गोविन्द- भगवत् – पाद देशिकेन्द्रमलक्ष्यत ।।४६।।
गोविन्द मुनि – यहां से चलकर शंकर अनेक पर्वतों तथा नादियो को पार करते करते हुए नर्मदा के किनारे ओंकारनाथ के पास पहुंचे । यह वही स्थान था जहां पर गोविंद मुनि किसी गुफा में अखण्ड समाधि की साधना कर रहे थे समाधि भंग होने के बाद शंकर से उनकी भेंट हुई। शंकर की इतनी छोटी उम्र में इतनी विलक्षण प्रतिभा देखकर गोविंदाचार्य चमत्कृत हो उठे और उन्होंने अद्वैत वेदांत के सिद्धांत को बड़ी सुगमता के साथ शंकर को बतलाया शंकर यहां लगभग तीन वर्ष तक अद्वैत तत्व की साधना में लगे रहे । उपनिषद तथा ब्रहासूत्र की जो संप्रदायिक अद्वैत परक व्याख्या सुन रखी थी। उसे ही अपने इस विचक्षण शिष्य को कह सुनाया । आचार्य अद्वैत तत्व में पारंगत हो गए । एक दिन की बात है कि वर्षा के दिनो मे नर्मदा नदी में बड़ी भारी बाढ़ आयी -इतनी बड़ी भारी बाढ़ कि उसके सामने बड़े बड़े वृक्ष तृण के समान भी ठहराने में समर्थ नहीं हुए । उसी समय गोविन्दपाद गुफा के भीतर बैठ कर सामधि निमग्न थे । शिष्यों में खलबली मच गयी कि यादि किसी प्रकार यह जल गुफा के भीतर प्रवेश कर जाय तो गुरदेव की रक्षा कथमपि नहीं हो सकती । शंकर ने अपने सहपाठियों की व्यग्रता देखी उन्होंने सांत्वना देते हुए उन्होंने एक घड़े को अभिमंत्रित कर गुफा के द्वार पर रख दिया । पानी ज्यो ज्यो बढ़ता जाता था वह उसी घड़े भीतर प्रवेश करता चला जाता था । गुफा के भीतर जाने क अवसर ही नही मिला । इस भीषण बाढ़ शंकर ने गुरू की रक्षा कर दी । उपस्थित जनता ने आजरज से देखा कि जिस बात की कल्पना वे स्वप्न में नहीं करते थे वही घटना अक्षरशः ठीक हुई । शंकर के इस अलौकिक कार्य को देखकर सब लोग विस्मित हो गए ।
जब गुरू जी समाधि से उठे तब इस आश्चर्य भरी घटना का हाल सुनकर वे चमत्कृत हुए और उन्होंने शंकर से काशी में जाकर विश्वनाथ के दर्शन को कहा । साथ ही साथ उन्होंने पुरानी कथा भी कह सुनायी जो उन्होंने हिमालय में देवयज्ञ में पधारने वाले व्यास जी से सुन रखी थी । व्यास जी ने उसी समय कहा था कि जो पुरुष एक घड़े के भीतर नदी की विशाल जलराशि को भर देगा , वही मेरे ब्रह्म सूत्रों की यथावत व्याख्या कर देने में समर्थ होगा। यह घटना तुम्हारे विषय चरितार्थ हो रही है । गोविन्द ने शंकरचार्य को प्रसन्नता पूर्वक विदा किया ।
जय श्री कृष्ण
दीपक कुमार द्विवेदी