ॐ
काशी में शंकर
गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर शंकर ने काशी के लिए प्रस्थान किया । काशी आकार उन्होंने मणिकार्णिका घाट समीप एक स्थान पर निवास करना आरंभ किया। इसी स्थान पर यथा विधि नित्य कर्म करके शंकर विश्वनाथ और अन्नपूर्णा के दर्शन में निरत हुए । विद्यार्थियों को अद्वैतवेदांत की शिक्षा देना भी आरंभ किया। (आचार्य की अवस्था अभी बारह वर्ष की थी ।) उसका असाधारण पांडित्य देखकर काशी की विद्वान मंडली चकित हो गई । ब्रह्मसूत्र का जो अर्थ शंकर ने गोविन्दपाद से सुना था उसी की व्याख्या नित्य छात्रों के सामने आचार्य करते रहे। आचार्य की विद्वता से अनेक छात्र आकृष्ट होकर उनसे विद्याभ्यास करने लगे । ऐसे शिष्यों में उनके प्रथम शिष्य हुए सनन्दन चोल देश के रहनेवाले थे । एक बार यहां एक विचित्र घटना घटी। दोपहर का समय था । शंकर अपने विद्यार्थियों के साथ मध्यान्ह कृत्य के निमित्त गंगातट पर जा रहे थे। उन्होंने रास्ते में चार भयानक कुत्तों से गिरे हुए भयंकर चांडाल को देखा । वह रास्ता रोककर खड़ा था। शंकर ने उससे दूर हट जाने के लिए कई बार कहा। इस पर वह चांडाल बोल उठा कि आप सन्यासी हैं, विद्यार्थियों को अद्वैत तत्व तत्व की शिक्षा देते हैं। परंतु आपके ये वचन सूचित कर रहे हैं। कि आपने अद्वैत का तत्वों का कुछ भी नहीं समझा है। जब जगत का कोना कोना उसी सच्चिदानंद का परम ब्रह्म से व्याप्त हो रहा है तब कौन इससे छोड़कर कहां जाय ? आप पवित्र ब्राह्मण है और मै नीचे श्वपच हूं। इस बात को मानना यह आपका दुराग्रह है । इन वचनों को सुनकर आचार्य के अचरज ठिकाना न रहा । और उन्होंने अपने हृदय की भावना को स्पष्ट करते हुए कहा कि जो चैतन्य विष्णु, शिवाजी देवताओं में स्फूरित होता है । वही कीड़े मकोड़ों जैसे क्षुद्र जानवरों में भी स्फूरित हो रहा है। उसी चेतन को जो अपना स्वरूप समझता हो ऐसा दृढ़ बुद्धि वाला पुरुष चांडाल भले ही हो वह मेरा गुरु है।
ब्रहौवामिदं जगच्च सकलं चिन्मात्र विस्तारित। सर्व चैतदविद्यया त्रिगुणयाशेषं मया कल्पितम् । ।
इत्थं यस्य दृढ़ा मतिः सुखतरे नित्ये परे निर्मले ।चाण्डालोऽस्तु सः तु द्विजोऽस्तु गुरूरित्येषा मनीषा मम।।
भगवान विश्वनाथ की परीक्षा समाप्त हुई। शंकर में चोर त्रुटि थी वह दूर हो गई। समय चांडाल का रूप छोड़कर विश्वनाथ ने अपना दिव्य शरीर प्रकट करते हुए कहा। वत्स शंकर ! मैं तुमसे प्रसन्न हूं। मेरी इच्छा है कि तुम्हारे द्वारा वैदिक धर्म संपन्न करूं। तुम्हारे किसी प्रकार न्यूनता होना उचित नहीं है। जाओ तुम व्यास कृत ब्रह्मसूत्र के उपर भाष्य की रचना करो । वेदांत का मुख्य तात्पर्य अद्वैत ब्रह्मा का प्रतिपादन है। इसका सर्वत्र विचार करो । तुम्हारे इस शरीर से जो कार्य संपन्न होगा, उससे मेरा ही कार्य जानना। इतना कहकर चाण्डाल वेशधारी शंकर अन्तर्ध्यान हो गए । इस घटना से आचार्य के शिष्यगण बड़े विस्मित हुए । आचार्य शांत भाव से मणिकर्णिका घाट पर स्नान करने के लिए चले गए। स्नान कर उन्होंने विश्वनाथ का दर्शन किया और अपने स्थान पर लौट आये। अब शंकर के हृदय में ब्रह्मसूत्रो पर भाष्य लिखने की इच्छा बलवती हो उठी । उन्होंने यही स्थिर कि बद्रीनाथ जाकर ही सूत्रभाष्य की रचना करूंगा । बद्रिकाश्रम के पास ही व्यास गुहा है जहां रहकर व्यास जी ने इन वेदांत सूत्रों का प्रणयन किया था । जिस पवित्र वायुमंडल में सूत्रों की रचना की गई थी उसी वायुमंडल को शंकर ने भाष्य की रचना के लिए भी उपयुक्त समझा । इसलिए उन्होंने अपनी इस मंडली के साथ गंगा किनारे खोकर बद्रीकाश्रम जाने का विचार किया ।
सनन्दन तथा अन्य विश्व के साथ वह बालक सन्यासी हिमालय के सुदूर तीर्थ मे जाने के लिए निकल पड़ा। आस्तीन में तीर्थों के दर्शन करते हुए यह आगे बढे चले जाते थे। उन्हे देखता वही आश्चर्य चकित हो जाता । द्वादशवर्षीय सन्यासी बालक गुरु, के साथ मे युवक वृद्ध , नाना अवस्था के सन्यासी और ब्रह्मचारी शिष्य यह कृष्ण सप्तर्षियों को के हृदय में एक साथ ही विस्मय और श्रद्धा उत्पन्न कर रहा था। आचार्य धीरे-धीरे हरिद्वार पहुंचे। हरिद्वार मैं कुछ दिन तक उन्होंने निवास किया । वहां से हुए ऋषिकेश आये । इस स्थान पर पहले ऋषियों ने यज्ञेश्वर विष्णु की मूर्ति स्थापित की थी। उसी की पूजा अर्चा यहां होती थी । आचार्य ने विष्णु मंदिर को देखा , परंतु मूर्ति को ना देख कर उन्हें बड़ा क्षोम हुआ। लोगों के मुख सेन सुना कि कुछ दिन पहले चीन देश के डाकूओं का उपद्रव इस देश में इतना अधिक था कि उसके डर के मारे विष्णु की मूर्ति गंगा के घर में छिपा दी गई थी। पीछे बहुत खोजने पर फीवर मूर्ति नहीं मिली। गंगा के गर्भ में छिपा दी गयी थी । पीछे बहुत खोजने पर भी वह मूर्ति नहीं मिली। गंगा की धारा वह किधर बह गई ? पता नहीं चला। इस पर आचार्य ने शिष्यों के साथ गंगातीर पर आकर एक स्थान दिखलाया। वहां चेष्टा से ही भगवान विष्णु कि वह प्राचीन प्रतिमा मिल गयी । लोगों ने बड़े समारोह के साथ उस यज्ञ मूर्ति विष्णु की प्रतिमा की प्रतिष्ठित उस मंदिर में की। अनन्तर शंकर अपने शिष्यों के साथ बद्रीकाश्रम की यात्रा के लिए चल पड़े।
जय श्री कृष्ण
दीपक कुमार द्विवेदी