भारत के सांस्कृतिक इतिहास में आचार्य शंकर और कुमारिल भट्ट के परस्पर मिलने की घटना अपना एक विशेष महत्व रखती है । कुमारिल और शंकर दोनों अपने समय के युगान्तर उपस्थित करनेवाले महापुरुष थे । इन दोनों महापुरुषों का मिलन वैदिक धर्म के इतिहास के लिए जितना महत्वपूर्ण है उसमें कम बौद्ध धर्म के इतिहास के लिए नहीं है । कुमारिल ने पांडित्यपूर्ण ग्रंथों के नास्तिक बौद्ध दार्शनिको के आर्यधर्म के कर्मकाण्ड के उपर किए गए आक्षेपों का मुंहतोड़ उत्तर देकर उसकी इस देश में पुनः प्रतिष्ठा की ।

आचार्य शंकर ने वैदिक धर्म के ज्ञानकाण्ड के उपर बौद्धो तथा जैनों के खण्डनो का उत्तर देकर अपने विपक्षियों को परस्त कर उसका पुनः मंडन किया । इस प्रकार इन दोनों मनीषियों को अपने विपक्षियों को परास्त कर इसका पुनः मंडन किया । इस प्रकार इन दोनों मनीषियों को ही वैदिक धर्म के कर्मकाण्ड तथा ज्ञानकाण्ड की पुनः स्थापना का श्रेय प्राप्त होता है । जब देश में नास्तिक बौद्धो के द्वारा वैदिक धर्म की खिल्ली उड़ाई जा रही थी, जब यज्ञ यागदिक पाप ठहराते जा रहे थे , ऐसे समय पर इन दोनों युगान्तरकारियो ने अपनी प्रतिभा तथा विद्वता से वैदिक धर्म की रक्षा की थी ।

इसमें इन दोनों महापुरुषों के मिलन के महत्व का सहज ही में अनुमान किया जा सकता है । परन्तु इस महत्व को समझाने के लिए कुमारिल भट्ट की विद्वता प्रतिभा , उनका व्यक्तित्व तथा जीवनवृत्त जानना अत्यन्त आवश्यक है । अतः : पाठकों का ध्यान हम कुमारिल के वृत , विद्वता तथा व्यक्तित्व की ओर खींचना अत्यंत उचित समझने है ।

कुमारिल की जन्मभूमि

कुमारिल भट्ट ने भारत के किस प्रान्त के अपने जन्म से गौरवान्वित किया था? इस प्रश्न का यथार्थ उतर साधनों के अभाव के कारण भलीभांति नहीं दिया जा सकता । भारतीय पंडितों के विषय में अनेक किम्वदन्तिया प्रचलित है इनके जन्मस्थान के विषय में तिब्बत में भी एक जनश्रुति प्रसिद्ध है । तिब्बत के ख्वातनामा ऐतिहासिक तारानाथ के कथनानुसार ये बौद्ध पंडित धर्मकीर्ति के पितृव्य थे जो दक्षिण भारत के चूड़ामणि राज्य के अन्तर्गत त्रिमलय में उत्पन्न हुए थे ।

वर्तमान काल में इन दोनों स्थानों की स्थिति के विषय में निश्चय पूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता । बहुत संभव है कि यह चूड़ामणि राज्य चोल देश का ही दूसरा नाम हो । यदि कुमारिल सचमुच धर्मकीर्ति के पितृत्व होते तो हम उन्हें दक्षिण भारत के निवासी मानने में आपत्ति नहीं करते । परन्तु इस विषय में भारतीय पराम्परा बिल्कुल मौन है । भारतीय पराम्परा के अनुसार ठीक इससे विपरीत बात सिद्ध होती है । आनन्दगिरि के शंकर दिग्विजय में लिखा है कि भट्टाचार्य ( कुमारिल ) ने उदग् देश (उतर भारत) से आकार दुष्ट मतावलम्बी जैनो तथा बौद्वौ को परास्त किया ।

उदग् देश काश्मीर और पंजाब समझा जाता है । विशिष्ट प्रान्तों के विषय में हम कुछ नहीं कह सकते परन्तु इस उल्लेख कुमारिल उतर भारत के ही निवासी प्रतीत होते हैं इतना ही नहीं मीमांसक श्रेष्ठ शालिककनाथ ने इनका उल्लेख वार्तिकार मिश्र के नाम पर किया है । मिश्र की यह उपाधि उतरी भारत के ब्रह्माणो के नाम से ही सम्बन्ध दिखलाई पड़ती है । शालिकनाथ स्वयं मींमसका थे । और कुमारिल के बाद तीन सौ वर्ष के भीतर ही उत्पन्न हुए थे । अत: उनका कथन इस विषय में विशेष महत्व रखता है । इसलिए कुमारिल को उत्तर भारत का ही निवासी मानना अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है । मिथिला देश में यह जनश्रुति है कि कुमरिल मैथिली ब्राह्मण थे । यह सम्भव है , परन्तु इस कथन की पुष्टि के लिए प्रमाणो में अत्यंत अभाव है ।

जय श्री कृष्ण

दीपक कुमार द्विवेदी

  • Facebook
  • Twitter
  • LinkedIn
  • Email
  • Copy Link
  • More Networks
Copy link
Powered by Social Snap