बद्रीनाथ का उद्धार
रास्ते में इन्होंने अनेक तीर्थो का दर्शन किया । इधर नरबलि देने की प्रथा बहुत अधिक थी पूजा का उग्ररूप इधर अधिक प्रचलित था । शंकर ने लोगों को समझा बुझाकर इस प्रथा को दूर किया । दुर्गम घाटी से होकर बदरी की यात्रा आज कठिन है । उस समय इसकी क्या दशा थी ? यह कितना बीहड़ था ? इसका अनुमान सहज में ही किया जा सकता है । इतना होने पर भी अलौकिक शक्ति से संपन्न शंकर शिष्यों के साथ मार्ग के कष्टों की अवेहलना करते हुए बदिरकाश्रम में जा पहुंचे । यह वही स्थान है जहां नर और नारायण ऋषियों ने घोर तपस्या की थी । सामने है गगनभेदी चिरूषारमण्डित अपरिमेय श्वेतकाय हिमालय जान पड़ता है मानो भगवान अति विशाल विराट मूर्ति धारणकर बैठे हुए हो । बायी और दाहिनी ओर नर और नारायण पर्वत खड़े हुए हैं। जान पड़ता है भगवान अपनी दोनों बाहुओ को पसार कर भक्तगणों को अपनी गोदी में लेने के लिए मानो आह्वान कर रहे हो । यह स्थान वस्तुत: भूतल पर स्वार्ग है । ऐसा कोई भी व्यक्ति न होगा जिसका चित्त आश्रम के सौंदर्य को देखकर मुग्ध न हो गया हो । आचार्य ने यहां रहकर अनेक तीर्थो का दर्शन किया परन्तु प्रधान मंदिर मैं भगवान नारायण की मूर्ति ना देखकर उन्हें बड़ा क्षोम हुआ । उन्होंने लोगों से इसका कारण पूछा । पूजारियो ने कह सुनाया कि चीन देश के राजा का समय समय पर इधर भयानक आक्रमण होता आया है । इसी डर से भगवान की मूर्ति को हम लोगों ने इसी नारदकुण्ड में फेंक दिया है । परन्तु पीछे बड़ी खोज करने पर भी वह मूर्ति हमें न मिल सकी । इस पर आचार्य ने नारदकुण्ड में स्वयं उतरकर मूर्ति खोज निकालने का प्रस्ताव किया पुजारियों ने उन्हें बहुत समझाया कि नीचे नीचे इस कुण्ड का सम्बन्ध अलकनन्दा के साथ है साथ है । अत: यहां उतरने पर प्राण हानि का भय है , अंत: आप न उतरे । आचार्य ने इन बातों पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। उन्होंने नारदकुण्ड मे डुबकी लगायी । उनके हाथ में पत्थर का एक टुकड़ा मिला। ऊपर आकर उन्होंने देखा कि है वह पद्मासन में बैठे चतुर्बाहु विष्णु की मूर्ति है । परन्तु मूर्ति का दाहिना कोना टूटा हुआ है ।
आचार्य ने इस मूर्ति को देखकर विचार किया कि बदरीनारायण की मूर्ति कभी खण्डित नहीं हो सकती। उन्होंने उस मूर्ति को फिर गंगा में फेंक दिया और कुण्ड मैं फिर गोता लगाया । फिर वही मूर्ति मिली। तीसरी बार आचार्य ने फिर उससे गंगा में डाल दिया और नारदकुण्ड में गोता लगाया। जब तीसरी बार वही मूर्ति उनके हाथ आयी तब उनके आश्चर्य का ठिकाना ना रहा। सुनते हैं कि उस समय आकाशवाणी हुई थी। कि कलि में इस मूर्ति की पूजा होनी चाहिए । शंकर ने स्वयं मूर्ति की प्रतिष्ठा मंदिर मे की तथा वैदिक रीति से इनकी पूजा -अर्चा का प्रबंध किया । शंकर ने देखा कि स्थानीय ब्राह्मणों ने वेदाध्ययन बहुत ही कम था । अत: उनके द्वारा ठीक वैदिक विधि से पूजन का निर्वाह नहीं हो सकता था। इसलिए उन्होंने अपने सजातीय नम्बुदरी ब्राह्मण को बद्रीनाथ मूर्ति की पूजा के लिए नियुक्त किया। आचार्य के द्वारा यह चलाई गई पद्धति आज भी अक्षुण्ण रीति से विद्यमान है । आज भी दक्षिण के नम्बुदरी ब्राह्मण (जैसे रावल जी कहते हैं। की अध्यक्षता में मैं इस स्थान की पूजा – अर्चा चलती है। बदरिधाम हमारे चारों धामों में अन्यतम है इसके उद्धार का समस्त श्री आचार्य शंकर को ही है। आगे चलकर शंकर ने इसी के कुछ दूर नीचे जोतिर्मठ की स्थापना की ( जिसे आजकल जोशीमठ भी कहते हैं ) और तोटकाचार्य नामक शिष्य को यहां का अध्यक्ष बनाया इस प्रकार इस स्थान का उद्धार कर अचार्य शंकर ने व्यासश्रम में रहकर ब्रह्मसूत्र के ऊपर भाष्य लिखने का निश्चय किया।
भाष्य रचना
व्यास तीर्थ बद्रिकाश्रम के पास ही है यही महामुनि व्यास देव का आश्रम है । यही रहकर वेदव्यास ने महाभारत की रचना की । इसके नीचे केशव प्रयाग है जहां अलकानन्दा के साथ केशव गंगा का संगम है । बदरीनारायण के मंदिर को पारकर उत्तर तरफ त्रिकोणाकार एक ऊंचे पूरब पश्चिम तक फैले हुए हिमालय प्रदेश में आश्रम स्थित है। यह एक बड़ी भारी गुफा है
ततोऽहं यतिरूपेण तीर्थान्नारदसंज्ञकात।
उद्धृत्य स्थापयिष्यामि हरिं लोकहितेच्छया ।।
स्कंदपुराण , वैष्णवखण्ड ( बद्रिकाश्रम महात्म्य), अध्याय ५ पृष्ठ गत्वैकादशवार्षिको बदरिकाण्ये सुपुण्याश्रमे पंचाब्दान्तर कुण्ठया निजधिया भाष्याणि य: पोडश ।
निर्माय पथयाञकार बदरिनरायणार्चा तथा श्रीज्योज्योतिमठमाबबन्ध स गुरु : श्री शंकरो वन्द्यते ।
कालिदास शंकरविजय का मंगलश्लोक हैं ।
गुफ़ा के बाहर दाहिनी तरफ सरस्वती का मंदिर है और बायी तरफ गणेश का। जब व्यास देव ने महाभारत की रचना की थी तब यही गणेश जी लिखते थे और उन्होंने गूढ़ श्लोकों के अर्थो को भलीभांति समझा है। कि नहीं इसकी गवाही देने के लिए सरस्वती देवी स्वयं उपस्थित थीं । इस गुफा में आचार्य शंकर ने अपने शिष्यों के साथ निवास करना आरंभ किया । एक हिमालय की सुंदर ऋतु , दूसरे आश्रम का पवित्र वायुमंडल दोनों ने मिलकर आचार्य के हृदय में नवीन आध्यात्मिक प्रेरणाएं प्रस्तुत की। यही रहकर आचार्य ने ब्रह्मसूत्र भगवदगीता तथा प्रधान उपनिषदों पर विशद भाष्य लिखे । आचार्य ने लगभग चार वर्षो तक निवास किया । बारह वर्ष की उम्र में वे आये थे और सोलह वर्ष समाप्त होते होते उन्होंने अपने भाष्य ग्रंथों की रचना कर डाली । आचार्य की साधना का यही पर्यवसान था । ये ग्रंथ इतने महत्वपूर्ण है कि वैदिक धर्म का रहस्य को जानने के लिए इनका अध्ययन नितांत आवश्यक है , परन्तु बिना टीका के बड़े दूरूह है आचार्य ने इन्हें व्याख्या से संपन्न कर इनकी उपयोगिता अधिक बढ़ा दी ।
जय श्री कृष्ण
दीपक कुमार द्विवेदी