आदि शंकराचार्य जी के पूर्व भारत की स्थिति क्या थी भाग १.२

Deepak Kumar Dwivedi

तंत्रो का युग

तान्त्रिकता का भी यह योग था। तंत्रपूजा की बहुलता इस युग कि अपनी विशिष्ट वस्तु थी। तंत्रों के यथार्थ रूप में अपरिचित होने से उपासको ने नयी कल्पना को उत्पन्न किया था। तंत्र में पांच मकारवाले पदार्थों का उपयोग लाते हैं , जिनके नाम हैं मद्य मांस मीन मुद्रा तथा मिथुन। इनके यथार्थ रूप ना समझने से अनेक अनर्थ होते आए। कुछ उपवासको को की धारणा है कि स्थूल तथा लौकिक मद्य मांस का ही प्रयोग न्याय संगत है और इसलिए वे अपनी पूजा में इसका प्रयोग भी करते। आचार्य ने अपनी शक्तिभर से तामस पूजा का निषेध किया है तथा इन तामस तांत्रिकों का युक्ति शास्त्र से खंडन किया है वस्तुतः पंच मकार का आध्यात्मिक अर्थ है। इसका संबंध अन्तर्याग से हैं बहि पूजा से नहीं पंच मकार शरीर के ही भीतर विद्यमान तत्वों का साक्षात प्रतीक है इन्हीं का अभ्यास तांत्रिक पूजा का मुख्य उद्देश्य है। इनका अज्ञान अनेक भ्रान्त धारणाओं का उत्पादक सिद्ध हुआ है । आदि शंकराचार्य के पूर्व भारत में शैव वैष्णव शाक्त तथा गणपत्य – सब प्रकार के तांत्रिकों का प्रभुत्व था। इनमें कतिपय मुख्य संप्रदाय तथा उनके सिद्धांतों का वर्णन तुलनात्मक अध्ययन के लिए किया जा रहा है ।

१ पाञ्चरात्र

वैष्णव आगमो को पाञ्चरात्र कहते हैं । इस शब्द का अर्थ भिन्न भिन्न प्रकार से किया जाता है नारद पाञ्चरात्र के अनुसार रात्र शब्द का अर्थ ज्ञान होता है रात्र च ज्ञान – वचन ज्ञान पञ्चविधि स्मृतम ( नारद पाञ्चरात्र १/४४- परम तत्व, मुक्ति भुक्ति योग तथा संसार इन पांच विषयों के निरूपण करने से यह तंत्र पाञ्चरात्र कहलाता है। पाञ्चरात्र का दूसरा नाम भागवत सात्वत है । महाभारत के नारायणी आख्यान में इस तंत्र सिद्धांत प्रतिपादित है। इसकी अपनी १०८ संहिताए भी है , जिनमें कतिपय संहिताओं का ही प्रकाशन अब तक हो पाया है । अहिर्बुध्न्यसंहिता जयासंख्यसंहिता ईश्वर संहिता विष्णु संहिता – आदि प्रमुख संहिताए इस तंत्र से संबंध है । इन संहिताओं के विषय में चार होते हैं । ज्ञान- ब्रह्म जीव तथा जगत के आध्यात्मिक रहस्यो का उद्घाटन तथा सृष्टितत्व का निरूपण १ योग मुक्ति के साधनभूत योग तथा उसकी प्रकियाओ का वर्णन (३) क्रिया देवाताओ का निर्माण , मूर्ति की संकर्षक प्रद्युम्न और अनिरूद्ध ये चतुर्व्यह कहे जाते हैं । वासुदेव तो जगत के कर्ता-धर्ता ईश्वर हैं। उसे उत्पन्न होने वाला संकर्षण जीव रूप है और उससे अनिरुद्ध अर्थात अहंकार का उदय होता है । भगवान के उभय भाव – सगुण निर्गुण इन्हें स्वीकृत है। नारायण निर्गुण होकर भी सगुण है। ज्ञान, शक्ति ,बल ऐश्वर्य वीर्य तथा तेज यह ६ गुण भगवान के विग्रह हैं । भगवान की शक्ति का सामान्य नाम लक्ष्मी है । जगत के मंगल के लिए भगवान अपनी स्वातंत्र्य -शक्ति के चार रूपो की सृष्टि करते हैं- र्व्यूह विभव अर्चावतार तथा अन्तर्यामी जीव स्वाभाव सर्वशक्तिशाली व्यापक तथा सर्वज्ञ हैं परन्तु सृष्टिकाल में भगवान तिरोधान शक्ति (माया अविद्या ) जीव के सच्चे रूप को छिपा देती है जिसमें जीव अणु किञ्चित्कर किञ्चज्ज्ञाता बन जाता है । इन्हीं अणुत्वादिको को मल कहते हैं । भगवान की कृपा से ही जीव का उद्धार होता है । और इस कृपा को पाने का उपाय शरणागति है । पाञ्चरात्रमत जीव ही ब्रह्म ही एकता का अवश्य प्रतिपादन करता है । परन्तु वह विवर्तवाद नहीं मानता है उसकी दृष्टि में परिणामवाद ही सत्य है । रामानुजाचार्य का विशिष्टद्वैत मत इसी का आगम पर अवलम्बित है । पाञ्चरात्र को श्रुतिसम्मत सिद्ध करने के लिए यामुनाचार्य ने आगमप्रामाण्य तथा वेदान्तदिक ने पाञ्चरात्र रक्षा की रचना की है । शंकराचार्य के इनके साधनमार्ग में विशेष विप्रचित्ति नहीं दीख पड़ती है । परन्तु चतुर्व्यूह का सिद्धांत इनकी दृष्टि में नितान्त उपनिषद के विरूद्ध है ।

२ .पाशुपत

उस समय भारतवर्ष में पशुपतो का बोलबाला था इस मत के ऐतिहासिक संस्थापक का नाम नकुलीश या लकुलीश है । इनका जन्म (गुजरात )के पास कारबन नामक स्थान में बताया जाता है। राजपूताना गुजरात आदि देशों में नकुलीश की मूर्तियां प्रचुरता से मिलती है, चीन का मस्तक केशव से थका रहता है, दाहिने हाथ में बीजपुर के फल और बाएं हाथ में लगुड या दंड रहता है। लगुड धारण करने के कारण ही इन आचार्य का नाम लगुडेश या लकुलीश भी है । ये शंकर के अठारह अवतारों में आद्या अवतार माने जाते हैं। गुप्त नरेश विक्रमादित्य द्वितीय के राज्यपाल ६१ गुप्त ( संवत ३८० ई०) का महत्वपूर्ण शिलालेख मथुरा में मिला है जिसमें उदिताचार्य पाशुपत आचार्य के द्वारा गुरु मंदिर में उपतितेश्वर और कपिलेश्वर नामक शिवलिंगों की स्थापना वर्णित है। उदिताचार्य ने अपने को भगवान कुशिक से दशम बतलाया है। । लकुलीश कुशिक के गुरु थे इस समय एक पीढ़ी के लिए २५ वर्ष मानकर का समय १०५ ई० के आसपास सिद्ध होता है- वह इस समय है जब कुषाण नरेश हुविष्क के सिक्कों में लगुडधारी की मूर्तियां मिलती हैं ।

पाशुपत -अनुसार पांच पदार्थ

पाशुपत मत के अनुसार पांच पदार्थ है – (१) कार्य (२) कारण (३) विधि ५ दुखान्त । कार्य उसे कहते हैं जिसमें स्वातंत्र्य शाक्ति न हो इसके अन्तर्गत जीव तथा जड़ दोनों समावेश है । जगत सृष्टि संहार तथा अनुग्रह करने वाले महेश्वर को कारण कहते हैं । ज्ञान शक्ति तथा प्रभु शक्ति से युक्त होने के कारण उसकी परिभाषिक संज्ञा पति है वह इस सृष्टि का केवल निमित्त कारण मात्र है । अर्थात वह उपादान कारण नहीं है चित के द्वारा आत्मा और ईश्वर के संबंध को लोग कहते हैं । महेश्वर की प्राप्ति करने वाला व्यापार विधि कहलाता है ‌ । प्रत्येक जीव विद्यावान अधर्म शक्ति हेतु च्यूति तथा पशुत्व नामक मलो से युक्त रहता है । ये मल जब सदा के लिए निर्वित हो जाते हैं तब उन्हें दुखान्त या मोक्ष कहते हैं । पशुपतो के ये पांच तत्त्व नितांत प्राचीन है सौभाग्यवश पशुपतो का मूल ग्रन्थ महेश्वर रचित पाशुपत -सूत्र है अनन्त शयन ग्रन्थमाला में ( न० १४३ ) कौण्डिन्य कृत पञ्चार्थी भाष्य के साथ है अभी प्रकाशित हुआ है । हम अगले भाग में कापालिक मत और शाक्त मत के विषय में विस्तार से चर्चा करेंगे

जय श्री कृष्ण

दीपक कुमार द्विवेदी

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