जगतगुरु आदि शंकराचार्य जी के पूर्व भारत की स्थिति क्या थी ? भाग १.३

Deepak Kumar Dwivedi

कापालिक मत

यह एक उग्रशैव तान्त्रिक संप्रदाय था। इस संप्रदाय के लोग माला, अलड्कार कुण्डल चूड़ामणि भस्म और यज्ञोपवीत ये छह मुद्रिकाए़ धारण करते थे । भवभूति में मालतीमाधव में श्रीशैल पर्वत को कापालिकों का मुख्य स्थान बतलाया है। प्रबोचनद्रोदय के तृतीय अंक में इस मत का परिचय दिया गया है कर्पूरमंजरी में राजशेखर ने भैरवनाथ नामक कापालिक की अलौकिक शक्ति का परिचय दिया है। ये लोग मनुष्यों की हड्डियों की माला पहनाते थे , आदमी की खोपड़ी में खाते थे, परन्तु योगाभ्यास के कारण विलक्षण सिद्धियां इन्हें प्राप्त थी । इनकी पूजा बड़े उग्र रूप की थी, जिसमें मद्य और मांस का प्रचूर प्रयोग होता था। शिवपुराण में इन्हें महाव्रतधर कहा गया है। मद्य पीकर लाल – लाल आंखें किए हुए मस्ती में झूमनेवाले भैरवानन्द की यह उक्ति कापालिकों के वास्तविक स्वरूप को प्रगट करती है –

मतो न ततो ण आ किंपि जाणं च णो किंपी गुरूप्पसादा ।

मज्ज पिआमो महिला रमामो मोक्ख च जामो कुलमग्ग लग्गा।

मैं मंत्र नहीं जानता, तंत्र नहीं जानता । न मुझे ज्ञान है । मुझे तो केवल एक वस्तु इष्ट हैं, वह है गुरू का प्रसाद। ध्यान से भी हमें कुछ नहीं लेना देना नहीं है हम मद्य पीते हैं और रमणियो के साथ रमण करते हैं। और कुलमार्ग में अनुरक्त होकर इसी सरल उपाय से हम मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । )
आचार्य शंकर के समय इस मत का खूब प्रचार था माधव ने श्रीपर्वत पर रहने वाले उग्र भैरव कापालिक के विशेष प्रभाव का वर्णन किया है। कर्नाटक देश में इनकी प्रभुता बहुत अधिक थी , यहां के कापालिक के सरदार का नाम था क्रकच। उसके यहां हथियारबंद कापालिकों की सेना रहतीं थीं जिसकी सहायता से वह जिसे चाहता था उसे अपने मत में दीक्षित किया करता था शिलालेख है जिसमें महाराज पुलकेशी द्वितीय के पुत्र नागवर्धन के कपालेश्वर की पूजा के लिए भूमिदान करने का उल्लेख है ।

शाक्त मत

शाक्ति की उपासना भारतवर्ष में वैदिक काल से ही चली आती है । वेद में भी शाक्त शक्ति के यथार्थ स्वरूप का वर्णन उपलब्ध होता है । धीरे धीरे शक्ति की उपासना का प्रचार प्रसार देश के कोने कोने में फैल गया। अपनी रूचि के अनुसार भिन्न भिन्न प्रान्तवालो ने इस पूजा में हेर फेर कर दिया इस मत के प्रतिपादक ग्रंथ आगम या तन्त्र कहलाते हैं सात्विक आगमो को तन्त्र तंत्र, राजस को यामल तथा तामस को डामर कहते हैं । भगवान शंकर के मुख पंचक से उत्पन्न होने कारण आगमो पांच आम्नाय होते हैं पूर्व ,दक्षिण पश्चिम , उत्तर तथा ऊर्ध्व। इन आम्नायो के के अनुसार पूजन -पद्वति में भी पार्थक्य है । प्रान्तों की विभिन्नता के कारण भिन्न भिन्न द्रव्यों से किया जाता है । इन केंद्रों के नाम है केरल कश्मीर कामाख्या मद्य मांस आदि पंचमकारो का निवेश तांत्रिक पूजा में आवश्यक बताया जाता है, पर केरल में इनके स्थान पर दुग्ध आदि अनुकल्पो का प्रयोग किया जाता था कश्मीर में केवल इन तत्वों की भावना की जाती है । केवल गौड़ देश की पूजा में इन द्रव्यों का प्रत्यक्ष उपयोग होता था । आरंभ मे शाक्ति पूजा सात्विक रूप में होती थी । परन्तु पीछे लोलुप उपासकों ने उसे नितांत तामस बना दिया था । यह बड़ी भ्रान्त धारणा है कि शंकर तन्त्र के विरोधी थे वे तो तान्त्रिक उपासना के बड़े भारी उन्नायक थे। परन्तु उनकी उपासना सात्विक मार्ग की थी , जिसमें वेद- विहित अनुष्ठान से तथा उपनिषदों- प्रतिपादित तथ्यों से किसी प्रकार का विरोध नहीं था ।

गाणपत्य मत

गणपति के उपासक को गाणपत्य कहते हैं यह उपासना भी वैदिकालीन ही है और प्राचीन है परन्तु कालान्तर में तामसिक तन्त्रो का प्रयोग इनमें भी होने लगा है । विशेषकर उच्छिष्ट गणपति की उपासना मद्य मांस के उपहार से आप्लुत होती है । शंकर के समय में भी इस उपासना के अड्डे थे । दक्षिण ने गणवपुर नामक नगर में इस उपासना की प्रधानता स्वीकृत की है

इस प्रकार हम देखते हैं कि षष्ठ सप्तम शतक में भारतवर्ष नाना मतो , संप्रदायो तथा पंथो की प्रचार भूमि बन चुका था जो मूल वैदिक धर्म से खींचकर एक ओर शून्यवाद की ओर ले जा रहे थे , दूसरी ओर अनेकान्तवाद की ओर ले जा रहे थे और तीसरी ओर मद्यमांस – बहुल तान्त्रिक उपासना के गड्डे में गिरा रहे थे । बेचारे विशुद्ध वैदिक धर्म के लिए यह महान संकट का युग था । वैदिक धर्म किसी उद्धारक की ओर टकटकी लगाये हुए था । ऐसे वातावरण में आचार्य शंकर का आविर्भाव हुआ । वे भगवान की दिव्य विभूति थे , जिसकी प्रभा आज भी भारतवर्ष को उदभासित कर रही है ।

जय श्री कृष्ण
दीपक कुमार द्विवेदी

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