अतिवाद का पतन, संतुलन का उदय : बिहार की जनता का स्पष्ट संदेश”

अमरदीप जौली

लेखक: दीपक कुमार द्विवेदी

आज प्राप्त हुए बिहार विधानसभा चुनाव के परिणामों ने यह सत्य पुनः प्रमाणित कर दिया है कि भारतीय समाज—विशेषतः हिन्दू समाज—स्वभावतः अतिवादी नहीं है और किसी भी प्रकार की उग्र, विभाजनकारी राजनीति को स्वीकार नहीं करता। भारतभूमि की सांस्कृतिक संरचना ही ऐसी है कि यहाँ सहस्राब्दियों से ब्राह्मण और श्रमण परंपराएँ सम्मिलित रूप से पनपती रहीं। इन परंपराओं में दार्शनिक मतभेद अवश्य रहे, परंतु रक्तपात, कटु संघर्ष या तामसी हिंसा का इतिहास नहीं मिलता। यह इस राष्ट्र के धर्मस्वभाव—सह-अस्तित्व, संवाद और संतुलन—की अद्वितीय पहचान है।

भारत का इस्लाम और क्रिश्चियनिटी के साथ संघर्ष भी राजनीतिक कम, सभ्यतागत अधिक रहा है। अब्राहमिक परंपराएँ ‘एकेश्वर—एक सत्य—एक मार्ग’ की संकल्पना पर आधारित हैं; स्वभावतः इनमें सह-अस्तित्व की वह व्यापकता नहीं जो भारत की वैदिक परंपरा में है। भारत की सभ्यता अनेक मार्गों, अनेक देवत्वों, अनेक जीवन-दर्शनों और अनंत व्याख्याओं को धारण करती है। संघर्ष तब उत्पन्न हुआ जब अब्राहमिक आक्रमणकारियों ने अपनी एकमात्र सत्य-व्यवस्था को भारतीय अस्मिता पर आरोपित करने का प्रयास किया। फिर भी हिन्दू समाज ने इस संघर्ष को केवल प्रतिकार से नहीं, अपनी सांस्कृतिक दृढ़ता और सहिष्णु शक्ति से संभाला—और इसलिए यह सभ्यता आज भी सह-अस्तित्व की राह पर अडिग खड़ी है।

स्वतंत्रता के उपरांत भारत की राजनीति में डॉ. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण के अनुयायियों तथा वामपंथी दलों ने समाजवादी और मार्क्सवादी वर्ग-संघर्ष के सिद्धांतों को लागू करने का प्रयास किया। यह विचार भारतीय सांस्कृतिक धारा से भिन्न था, क्योंकि भारत में सहस्राब्दियों तक कोई वर्गीय नरसंहार या जातीय युद्ध परंपरा नहीं रही। पश्चिम बंगाल में सीपीएम के नेतृत्व में दशकों चले शासन ने हिंसा और काडरवाद को सामान्य बना दिया। बंगाल आज भी उन सामाजिक-विक्रतियों से मुक्त नहीं हो पाया।

बिहार में इसी विचारधारा की जड़ें वामपंथियों ने डालीं और 1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव ने इसे ‘सामाजिक न्याय’ के नाम पर चरम स्वरूप दिया। इसी दौर में लक्ष्मणपुर-बाथे, बथानी टोला, सेनारी जैसे भीषण नरसंहारों ने बिहार को झकझोर दिया। अपराध, अपहरण, माफिया-तंत्र और जातीय विद्वेष ने जनता के जीवन को असहनीय बनाया। लाखों लोग रोजगार, शिक्षा और सुरक्षा के लिए बिहार से पलायन करने को विवश हुए।

सन् 2005 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए सरकार का गठन हुआ, और बिहार ने दीर्घकाल के बाद स्थिर शासन, कानून-व्यवस्था, सड़क-संरचना, शिक्षा सुधार और प्रशासनिक नवजीवन का अनुभव किया। इसीलिए उन्हें ‘सुशासन बाबू’ के रूप में पहचान मिली। बीच में वे दो बार एनडीए से अलग हुए, फिर लौटे, परंतु बिहार पुनः उस पुराने रक्तरंजित काल में नहीं लौटा।

इसी काल में एक नया वैचारिक संकट सामने आया—कल्चरल मार्क्सवाद और उसकी उपज क्रिटिकल रेस थ्योरी (CRT)। पश्चिम में यह सिद्धांत नस्लीय संघर्ष पर आधारित रहा, पर भारत में इसे जातिगत संघर्ष के रूप में लागू करने का प्रयास कांग्रेस और विशेषतः राहुल गांधी द्वारा किया गया। राहुल गांधी ने जाति को ‘रेस’ बताकर कास्ट–रेस थ्योरी गढ़ने की चेष्टा की, जो भारतीय समाज की वास्तविकता और वैदिक परंपरा दोनों के विरुद्ध है।

इस राजनीति को विशेष बल तब मिला जब 2022 में बिहार में जातिगत सर्वेक्षण हुआ—उस समय राजद–जदयू सरकार सत्ता में थी। जातिगत आँकड़ों का उपयोग सामाजिक न्याय के नाम पर किया गया, परंतु इनके पीछे वही पुरानी विभाजनकारी मंडलवादी राजनीति सक्रिय थी जिसने 1990 के दशक में बिहार को हिंसा और अराजकता में झोंक दिया था।

2024 के लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी ने इसी कास्ट–रेस थ्योरी को अपनी राजनीति का केन्द्रीय आधार बनाया। कांग्रेस को आंशिक सफलता मिली, और इसी से प्रेरित होकर जातिगत विभाजन को और हवा दी गई।

लेकिन 2025 में बिहार की जनता ने इस सिद्धांत को निर्णायक रूप से अस्वीकार कर दिया। जिस भूमि से मंडलवाद और वर्ग-संघर्ष की राजनीति ने जन्म लिया था, उसी भूमि ने कहा—“अब नहीं।” बिहार ने जातिगत ध्रुवीकरण को नकारकर पुनः सनातन धर्म के सह-अस्तित्व आधारित मार्ग को चुना।

2025 के चुनाव में तेजस्वी यादव और कांग्रेस ने पुनः 85 बनाम 15 जैसे नारे, जातिगत ध्रुवीकरण, सेना पर जातिगत टिप्पणी (राहुल गांधी द्वारा “सेना के शीर्ष पदों पर 10% लोगों का कब्ज़ा” कहा जाना) और आरजेडी प्रवक्ता प्रियंका भारती द्वारा मनुस्मृति फाड़कर उकसाने का प्रयास किया। परंतु जनता ने यह सब अस्वीकार कर दिया।243 में से 200 से अधिक सीटों पर भाजपा–जदयू–लोजपा (RV) गठबंधन की प्रचंड बढ़त ने स्पष्ट संदेश दे दिया कि बिहार जातिगत संघर्ष को नहीं चाहता, बल्कि शांति, स्थिरता और सह-अस्तित्व को चुनता है।

अब उस ऐतिहासिक भ्रम को भी सुधारा जाना चाहिए कि भारत गुलाम इसलिए हुआ क्योंकि हिन्दू समाज जातिगत रूप से विभाजित था। यह पूर्णतः असत्य है।हिन्दू समाज प्राचीन काल से अत्यंत संगठित रहा है—धार्मिक रूप से, सांस्कृतिक रूप से, और ज्ञान–परंपरा में भी। शास्त्रार्थ, खंडन-मंडन, दार्शनिक बहस, मतों का सह-अस्तित्व—यह सब किसी विखंडित समाज में संभव ही नहीं होता।

भारत की पराजय के कारण अन्य थे—महाभारत युद्ध के बाद शस्त्र-विज्ञान में शोध और नवाचार की गति मंद पड़ना,कई राजाओं द्वारा बौद्ध ‘अतिशान्ति’ की नीति अपनाना,धातु-विज्ञान, सैन्य-रणनीति और शस्त्र-निर्माण में लगातार अनुसंधान न होना,एशिया से आने वाले इस्लामी आक्रमणकारियों की उन्नत सैन्य-रणनीति, घुड़सवार सेना और सामरिक क्रूरता।

इन कारणों का सम्मिलित परिणाम था कि भारत बाहरी आक्रमणों के प्रति धीरे-धीरे दुर्बल हुआ।जातिगत विभाजन इसका कारण नहीं था — यह ऐतिहासिक रूप से सिद्ध तथ्य है।

अंततः, हिन्दू समाज तब कमजोर पड़ा जब किसी विचार, मत या शासन ने अतिवाद का मार्ग अपनाया — चाहे वह अतिशान्ति हो या उग्रता। जहाँ भी मध्य मार्ग छूटा, वहीं विखंडन उत्पन्न हुआ।

बिहार के चुनाव परिणामों ने पुनः सिद्ध कर दिया है कि यह देश विभाजन नहीं, समन्वय चाहता है; संघर्ष नहीं, सह-अस्तित्व चाहता है; और जब कोई शक्ति समाज को विभाजित करने का प्रयास करती है—तो जनता उसी स्पष्टता से उत्तर देती है जैसा बिहार ने दिया—शांत, दृढ़ और निर्णायक।

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