अति भला न बोलना,अति भली न चूप
अति भला न बरसना, अति भली न धूप।
1825 में निकोलस प्रथम रूस के सिंहासन पर बैठे। उनके सिंहासन पर बैठते ही उनके खिलाफ विद्रोह होने लगा। यह विद्रोह उदारवादी कर रहे थे, जो आधुनिकीकरण की मॉंग कर रहे थे। वे चाहते थे कि रूस में यूरोप के बाकी देशों की तरह उद्योग-धंधे और इमारतें बने। “दिसंबर के विद्रोह के नाम”से मशहूर इस विद्रोह का निर्ममता से दमन करते हुए निकोलस प्रथम ने विद्रोही नेता कोंदरेटी रयेलेयेव को मृत्युदंड देने का आदेश दिया। रयेलेयेव को फाँसी दी जाने के तख्ते पर खडा किया गया और उसके गले में रस्सी बाँध दी गई। फिर नीचे से तख्ता हटा लिया गया। लेकिन रयेलेयेव जैसे ही रस्सी से झूला, रस्सी टूट गई और वह जमीन पर गिर गया।
उस वक्त इस तरहकी घटनाएँ ईश्वर का इंसाफ मानी जाती थीं और जो व्यक्ति मृत्युदंड से इस तरह बचता था, उसे आम तौर पर माफ कर दिया जाता था। जब रयेलेयेव अपने पैरो पर खडा हुआ,तो उसे चोट तो लगी थी, लेकिन उसे यकीन था कि उसकी जान बच गई है, इसलिए वह भीड से चिल्लाकर बोला, “तुम लोगों ने देखा,रूस वाले कोई भी काम ठीक तरह से नहीं कर सकते। उन्हें तो रस्सी बनानी भी नहीं आती है।”
एक संदेशवाहक तत्काल यह खबर लेकर सम्राट के पास गया कि मृत्युदंड नहीं दिया जा सका। इस निराशाजनक खबर से चिंतित होने के बावजूद निकोलस प्रथम विद्रोही नेता रयेलेयेव के माफी नामे पर हस्ताक्षर करने लगे। लेकिन तभी उन्होंने संदेशवाहक से पूछा, “क्या इस घटना के बाद रयेलेयेव ने कुछ कहा था?”संदेशवाहक ने जवाब दिया, “उसने कहा था कि रूस वालों को तो रस्सी बनानी भी नहीं आती है।”सम्राट ने माफीनामें को फाडते हुए कहा,”अगर ऐसी बात है, तो हम उसकी बात को गलत साबित करके दिखा देंगे।” अगले दिन रयेलेयेव को दोबारा फाँसी के फंदे पर लटकाया गया और इस बार रस्सी नहीं टूटी।