फादर फॉर्गेट्स ( प्रत्येक पिता यह याद रखे)

अमरदीप जौली

-डब्ल्यू लिविंगस्टन लारनेड

कुछ लेख गहन अनुभूति के किसी विशेष क्षण में लिखे जाते हैं और वही लेख पाठकों के दिल को छू जाते हैं। ऐसा ही एक लेख “फादर फॉर्गेट्स” भी है। अब यह लेख लगातार पुनः प्रकाशित हो रहा है। इसके लेखक डब्यू लिविंगस्टन लारनेड का कहना है कि यह लेख हजारों अखबारों और पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है। कई विदेशी भाषाओं में भी यह लेख उतना ही सफल हुआ है। मैंने हजारों लोगों को व्यक्तिगत तौर पर यह अनुमति दी है कि वे इसका प्रयोग स्कूल तथा लेक्चर प्लेटफार्म में कर सकें। यह अनेक बार असंख्य कार्यक्रमों में रेडियो पर प्रसारित हो चुका है। कॉलेज की पत्रकाओं तथा हाईस्कूल की पत्रिकाओं में भी यह लेख छप चुका है। कई बार एक लघु लेख ही रहस्यमय कारणों से ‘क्लिक’ हो जाता है। इस लेख के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है।

जरा सुनो बेटे! मैं तुमसे कुछ बातें करना चाहता हूं। तुम तो गहरी नींद में सोये हुए हो। तुम्हारा प्यारा-सा छोटा-सा हाथ तुम्हारे कोमल गाल के नीचे दबा हुआ है। तुम्हारे पसीने में तर माथे पर घुंघराले बाल बिखरे हुए हैं। मैं अकेला हूं और चुपचाप तुम्हारे कमरे के अन्दर आया हूं। अभी कुछ मिनटों पहले मुझे बहुत पश्चाताप हुआ जब मैं पुस्तकालय में अखबार पढ़ रहा था। इसीलिए तो मैं आधी रात के समय किसी अपराधी की तरह तुम्हारे बिस्तर के पास खड़ा हुआ हूं। ये हैं वे बातें जिनके बारे में मैं सोच रहा था-बेटे, आज मैंने तुम पर क्रोध किया था। जब तुम विद्यालय जाने के लिए तैयार हो रहे थे, तो मैंने तुम्हें खूब डांट पिलाई थी…तुमने तौलिये की जगह पर्दे से हाथ पौंछ लिये थे।तुम्हारे गंदे जूते देखकर भी मैं तुम पर क्रोधित हुआ था। सारा फर्श तुम्हारे द्वारा बिखेरी गई चीजों से भरा पड़ा था। इसके लिए भी तुम्हें बहुत कोसा था। जब तुम नाश्ता कर रहे थे तब भी मैंने तुम्हें भला-बुरा कहा था। इस कारण, तुमने खानें के मेज पर खाना बिखेर दिया था। खाते समय तुम्हारा मुंह खुला था और चपड़़-चपड़़ की आवाज आ रही थी। तुम्हारी कुहनियां मेज पर थीं। तुमने टोस्ट पर कुछ ज्यादा ही मक्खन लगा लिया था। केवल इतना ही नहीं, मेरे ऑफिस जाते वक्त भी जब तुम खेलने जा रहे थे और तुमने मुझे ‘गुड बाय डैडी’ बोला था, तब भी मैने तुम्हें गुस्से में टोक दिया था-“‘जरा अपना कॉलर तो ठीक कर लो’ । ऑफिस से लौटने पर भी मैंने देखा कि तुम अपने साथियों को साथ मिट्टी में खेल रहे थे। तुम्हारी जुराबों में छेद हो गये थे और तुम्हारे कपड़े बहुत गंदे थे। मैं अपने क्रोध पर नियंत्रण न रख पाया और तुम्हारे साथियों के सामने ही तुम्हें अपमानित कर दिया था। पता है जुराबें कितनी महंगी हो गयी हैं, कपड़े कितने कीमती हैं। जब स्वयं अपनी कमाई से खरीदोगे, तब पता चलेगा। यही सब तो मैंने कहा था और एक पिता अपने बच्चे का इससे अधिक दिल किस प्रकार दुखा सकता है?

तुम्हें तो याद ही होगा कि रात को जब मैं लायब्रेरी में पढ रहा था और तुम मेरे कमरे में आये थे तो तुम कितने सहमे हुए और आतंकित थे। तुम्हारी आंखों में झलक रही थी, तुम्हारे सीने की चोट। तब भी मैने अखबार के ऊपर से देखते हुए पढ़ने में रुकावट डालने के लिए तुमहें बुरी तरह झिड़क दिया था’ कभी तो चैन से जीने दिया करो।’और तुम दरवाजे पर ही मूर्ति बन गये थे। तुम कुछ भी बोले नहीं थे। मेरे पास भागकर आये थे और मेरे गले में अपनी बाहें डाल दी थीं और मुझे चूमा था और फिर ‘गुड नाइट डैडी’ कहकर एकदम गायब हो गये थे, तुम्हारी नन्ही बाहों की पकड़़ ऐसी मजबूत थी कि वह यह अहसास करा रही थी कि इतनी उपेक्षा के बावजूद तुम्हारे मन- मंदिर में खिला प्रेम-रूपी पुष्य अभी तक मुरझाया नहीं है, और फिर तुम सीढ़ियों पर जोर-जोर से खट-खट कर के चढ गए थे। हां बेटे, इस घटना के कुछ क्षणों के बाद ही मेरे हाथों से अखबार छूट गया और मैं आत्मगलानि में डूब गया। आखिर मैं ऐसा क्यों होता जा रहा हूँ? मेरी आदत डांटने -फटकारने की पड़ती जा रही है। अपने बच्चे को मैं यह कैसा बचपन दे रहा हूं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैंने तुम्हें प्यार करना छोड़ दिया है, लेकिन मुझे तुमसे कुछ अधिक ही आशाएं हैं और मैं तुम्हारे बचपने को अपनी उम्र के तराजू पर तौलने लगा हूं। तुम बहुत प्यारे, सच्चे और अच्छे हो। तुम्हारा नन्हा-सा मासूम-सा हृदय तो चौड़ी पहाड़ियों के पीछे से उगती सुबह की भांति विशाल है। तुम्हारे अंदर तो बहुत बड़प्पन है। तभी तो इतनी डांट के बावजूद तुम मुझे ‘गुड नाइट किस देने आ गये थे। तुममें कोई मैल नहीं है, यह रात बस इसीलिए इतनी खास है मेरे बेटे। मैं अंधेरे में तुम्हारे बिस्तर के सिरहाने घुटनों को बल बैठा हूं , लज्जित, अपमानित, तुमसे बहुत छोटा। यह तो कवल एक दुर्बल पश्चाताप है। मुझे मालूम है कि अगर मैं अभी तुम्हें जगाकर यह बताऊंगा तो तुम कुछ भी नहीं समझोगे, लेकिन मैंने सोच लिया है, कल से मैं तुम्हें प्यारा पापा बनकर दिखाऊंगा। मैं तुम्हारे साथ खेलूंगा, तुम्हारी प्यारी-प्यारी बातें पूरे दिल से सुनूंगा, तुम्हारे सुख-दुःख सब बाटूंगा। अगली बार तुम्हें डांटने से पहले अपनी जीभ को अपने दांतों के नीचे दबा लूंगा। यह मन्त्र हमेशा रटता रहूंगा- ‘मेरा बेटा तो अभी बच्चा है छोटा-सा, प्यारा-सा नन्हा-सा मासूम बच्चा।’ अब मुझे अपनी इस सोच पर बहुत दुःख होता है कि मैं तुम्हें बहुत बड़ा मानने लगा था, लेकिन आज जब मैने देखा कि तुम कैसे थके-थके मासूम से पलंग पर सो रहे हो एकदम निश्चिंतता के साथ, तो बेटे, मुझे यह एहसास हो गया है कि तुम अभी छेटे-से बच्चे ही तो हो। कल तक तुम अपनी मां की बाहों में झूलते थे, उसके कंधे पर सिर रखकर सो जाते थे। मैंने तुमसे कुछ ज्यादा ही उम्मीद बांध ली थी, कुछ ज्यादा ही।

तो इस लेख का भी यही सार निकला कि लोगों की आलोचना करने के बजाय हमें यह जानने, समझने की कोशिश करनी चाहिए कि जो काम वे करते हैं, उसके पीछे कारण क्या हैं? परिस्थितियों पर ध्यान देना बहुत रोचक व लाभदायक सिद्ध होगा। इससे माहौल हल्का-फुल्का बना रहेगा। सबको समझ लेने का मतलब सबको माफ कर देना ही तो होता है। “भगवान स्वयं आदमी की मृत्यु से पहले उसका निर्णय नहीं करता। तो फिर मैं या आप ऐसा कैसे कर सकते हैं”?

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