बात निकलेगी तो फिर नेहरु तलक जायेगी!

अमरदीप जौली

अब चूँकि प्रधानमंत्री मोदी के कन्याकुमारी में “विवेकानन्द रॉक” पर ध्यान करने पर विवाद शुरू हो ही गया है तो जाहिर है कि इसका इतिहास भी निकल ही आएगा। जैसा कि होना तय है, इस विवाद की जड़ें भी फिर नेहरु तक ही पहुँच जाती हैं…हुआ यूँ कि 1962 में विवेकानन्द जन्मशती के अवसर पर कन्याकुमारी में लोगों ने एक समिति बनाई और तय किया कि एक पैदल ब्रिज उस चट्टान तक बनवाया जाए जिसे स्वामी विवेकानन्द के कन्याकुमारी निश्चय के लिए जाना जाता है। स्वामी विवेकानन्द 24 दिसम्बर 1892 को कन्याकुमारी पहुंचे थे और दर्जनों पुस्तकें उनके तैरकर इस चट्टान पर जाने और ध्यान लगाने की गवाही देती हैं। इस चट्टान पर एक छोटा सा स्मारक बनाने की योजना भी थी। करीब-करीब इसी समय मद्रास के रामकृष्ण मिशन आश्रम ने भी ऐसे ही स्मारक की योजना बनाई।अब आपको तो पता ही है कि 1962 नेहरु का दौर था। स्थानीय आबादी में एक बड़ी संख्या कैथोलिक मछुआरों की थी। चट्टान तक उस दौर में केवल तैरकर या नाव से पहुंचा जा सकता था। इन कैथोलिक समूहों ने चट्टान को सैंट ज़ेवियर रॉक बुलाना शुरू कर दिया और एक बड़ा सा क्रॉस बनाकर उस चट्टान पर लगा दिया। क्रॉस इतना बड़ा था कि अगली सुबह किनारे से ही नजर आने लगा तो फौरन हिन्दुओं ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। राज्य की सरकार बहादुर (जो कांग्रेस की ही थी) न्यायिक जांच के आदेश दिए। जुडिशल प्रोब में कहा गया कि ये विवेकानन्द रॉक ही है इसलिए वहाँ क्रॉस लगा देना तो घुसपैठ हुई। हंगामा चल ही रहा था कि एक रात फ्रांसिस ज़ेवियर भाग गए, मतलब क्रॉस अचानक गायब हो गया। अबतक स्थिति विस्फोटक हो चुकी थी इसलिए विवेकानन्द रॉक को प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित करके कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री एम. भक्तवत्सलम ने वहाँ हथियारबंद सिपाहियों का पहरा लगा दिया। मामला केंद्र की (कांग्रेस) सरकार पर फेंककर राज्य सरकार निश्चिन्त हो गयी। केंद्र में उस समय संस्कृति मंत्री थे हुमांयू कबीर। जाहिर सी बात है कि कौम के प्रति वफादारी निभाते हुए उन्होंने मामले को अटकाया। अबतक इस मामले में एकनाथ रानाडे जी ( राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक ) का प्रवेश हो चुका था। उन्हें विवेकानन्द मेमोरियल रॉक मिशन का प्रमुख भी बना दिया गया था। एकनाथ जी को पता था कि हुमांयू कबीर का चुनावी क्षेत्र कोलकाता (तब कलकत्ता) का है। एकनाथ जी ने उनके क्षेत्र में ही खबर फैला दी कि नेता जी तो बंगाल के सबसे विख्यात सुपुत्र का स्मारक नहीं बनने दे रहे! बंगाल में हुमांयू कबीर को व्यापक विरोध के सामने झुकना पड़ा। अब हुंमायूं कबीर ने बहाना बनाया कि विवेकानन्द रॉक पर निर्माण से तो चट्टान की शोभा चली जाएगी, इसलिए उन्होंने स्मारक के नाम पर एक स्टोन टेबलेट लगाने की बात की।इस तरह 17 जनवरी 1963 तक वहाँ केवल एक स्टोन स्लैब लग पाया। एकनाथ रानाडे इस बीच लाल बहादुर शास्त्री जी के संपर्क में थे और दोनों नेताओं ने समझ लिया था कि नेहरु के आदेश के बिना काम नहीं होगा। तीन दिन तक एकनाथ रानाडे दिल्ली में ही रुके और विवेकानंद मेमोरियल रॉक पर स्मारक के समर्थन में उन्होंने सांसदों के हस्ताक्षर इकठ्ठा करने शुरू किये। तीन दिन के अन्दर जब वो 323 सांसदों का समर्थन जुटा लाये तब कहीं जाकर कांग्रेसी सरकार थोड़ी ढीली पड़ी। इतने के बाद भी काम पूरा नहीं हुआ था। कांग्रेसी मुख्यमंत्री एम. भक्तवत्सलम ने इसके बाद भी केवल पंद्रह फीट बाय पंद्रह फीट का स्मारक बनाने की आज्ञा दी। एकनाथ को पता था कि इतने से काम नहीं हो सकता तो वो कांची कामकोटी पीठ के 68वें शंकराचार्य जगद्गुरु श्री चंद्रशेखर सरस्वती महास्वमिंगल के पास जा पहुंचे। कांची पीठ के शंकराचार्य महापेरियावर ने जो 130 फीट डेढ़ इंच बाय छप्पन फीट का नक्शा सुझाया उसपर मजबूरन एम. भक्तवत्सलम माने।इतने के बाद सवाल था कि ये स्मारक बनाने के लिए पैसे कहाँ से आयेंगे? एकनाथ रानाडे ने विश्व भर के हिन्दुओं को एक-एक रुपये का चंदा करने के लिए आमंत्रित किया और जैसे अभी राम जन्मभूमि मंदिर हिन्दुओं के दान से बना है वैसे ही विवेकानन्द रॉक पर स्मारक बना। स्वामी विवेकानन्द की 108वीं जयंती (हिन्दू पंचांग के हिसाब से) 7 जनवरी 1972 को थी और इस दिन ॐ लिखा भगवा ध्वज यहाँ फहराकर विवेकानन्द केंद्र की स्थापना की घोषणा हुई। हमें विश्वास है कि आज के कई लोग इस संघर्ष की गाथा से भी अपरिचित होंगे। *स्वतंत्र भारत में भी स्वतंत्रता हिन्दुओं ने एक-डेढ़ इंच लड़-लड़ कर पायी है।* विवाद हमारी आने वाली पीढ़ियों को हमारे पूर्वजों के संघर्ष की गाथाएँ सुनने के लिए अच्छा अवसर है, सुनाना भूलियेगा मत!

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