भक्त श्रेष्ठ नरसी मेहता

अमरदीप जौली


नरसी मेहता 15 वीं शताब्दी के गुजराती भक्तिसाहित्य की श्रेष्ठतम विभूति थे। उनके कृतित्व और व्यक्तित्व की महत्ता के अनुरूप साहित्य के इतिहासग्रंथों में नरसिंह-मीरा-युग नाम से एक स्वतंत्र काव्यकाल का निर्धारण किया गया है जिसकी मुख्य विशेषता भावप्रवण कृष्णभक्ति से अनुप्रेरित पदों का निर्माण है।
पदप्रणेता के रूप में गुजराती साहित्य में नरसी का लगभग वही स्थान है जो हिंदी में सूरदास का। वैष्णव जन तो तैणे कहिए जे पीड पराई जाणे रे पंक्ति से आरंभ होने वाला सुविख्यात पद नरसी मेहता का ही है। इन की रचनाओं में जयदेव, नामदेव, रामानंद और मीरा का उल्लेख मिलता है।
नरसी मेहता का जन्म जूनागढ़ के समीपवर्ती “तलाजा” नामक ग्राम में हुआ था और उनके पिता कृष्णदामोदर वडनगर के नागरवंशी कुलीन ब्राह्मण थे। उनका अवसान हो जाने पर बाल्यकाल से ही नरसी को कष्टमय जीवन व्यतीत करना पड़ा।
नरसी आठ वर्ष तक गूंगे रहे और किसी कृष्णभक्त साधु की कृपा से उन्हें वाणी का वरदान प्राप्त हुआ। साधु संग उनका व्यसन था। उद्यमहीनता के कारण उन्हें भाभी की कटूक्तियाँ सहनी पड़तीं और अंतत: गृहत्याग भी करना पड़ा।
विवाहोपरांत पत्नी माणिकबाई से कुँवर बाई तथा शामलदास नामक दो संतानें हुई।
भक्त नरसी जी के विश्वास का यह प्रभाव था कि साक्षात् भगवान को उनकी पुत्री का विवाह करना पड़ा. विवाह में जितनी सामग्री लगी, सब भगवान ने पहुँचायी और स्वयं उपस्थित होकर सब काम किये. इसी प्रकार उनके पुत्र का विवाह भी भगवान की कृपा से हुआ.
उनके पिता के श्राद्ध के दिन भगवान स्वयं नरसी का रूप धारण करके ब्राह्मणों को भोजन कराते रहे, क्योंकि नरसी जी तो बाज़ार में घी लेने गये, रास्ते में कुछ सन्तों को भजन-कीर्तन करते देखा तो कीर्तन में लग गये और घर लौटना भूल गये.
जूनागढ़ के रामण्डलीक के हठ पर कि भगवान की मूर्ति उनके गले में माला डाल दे. यह इच्छा भगवान ने विवश होकर पूरी की. भगवान की मूर्ति ने सबके सामने नरसी जी के गले में माला डाल दी.
नरसिंह मेहता की भाभी आप को बहुत भला बुरा कहती थी। एक दिन भाभी की बातों से तंग आकर आप जंगल चले गए और बिना खाए पिये 7 दिन तक शिवजी के मंदिर में आराधना की।
भगवान शिव एक साधु के रूप में प्रगट हुए।नरसी जी के अनुरोध पर भगवान शिव आप को वृन्दावन में रास लीला दिखाने को ले गए। आप रास लीला देखते हुए इतने खो गए की मशाल से अपना हाथ जला बेठे। भगवान कृष्ण ने अपने स्पर्श से हाथ पहले जैसा कर दिया और नरसी जी को आशीर्वाद दिया। घर आकर आप ने भाभी का धन्यवाद किया।
एक बार द्वारका को जाने वाले कुछ साधु नरसी जी के पास आये और उन्हें पांच सौ रूपये देते हुए कहा की आप काफी प्रसिद्ध व्यक्ति हो आप अपने नाम की पांच सौ रुपयों की हुंडी लिख कर दे दो हम द्वारका में जा कर हुंडी ले लेंगे।
पहले तो नरसी जी ने मना करते हुए कहा की मैं तो गरीब आदमी हूँ, मेरे पहचान का कोई सेठ नहीं जो तुम्हे द्वारका में हुंडी दे देगा, पर जब साधु नहीं माने तो उन्हों ने कागज ला कर पांच सौ रूपये की हुंडी द्वारका में देने के लिये लिख दी और देने वाले (टिका) का नाम सांवल शाह लिख दिया।
द्वारका नगरी में पहुँचने पर संतों ने सब जगह पता किया लेकिन कहीं भी सांवल शाह नहीं मिले। सब कहने लगे की अब यह हुंडी तुम नरसी से ही लेना।
उधर नरसी जी ने उन पांच सौ रुपयों का सामान लाकर भंडारा देना शुरू कर दिया। जब सारा भंडारा हो गया तो अंत में एक वृद्ध संत भोजन के लिये आए। नरसी जी की पत्नी ने जो सारे बर्तन खाली किये और जो आटा बचा था उस की चार रोटियां बनाकर उस वृद्ध संत को खिलाई।
जैसे ही उस संत ने रोटी खाई वैसे ही उधर द्वारका में भगवान ने सांवल शाह के रूप में प्रगट हो कर संतों को हुंडी दे दी।
जब नरसी जी की धर्मपत्नी का स्वर्गवास हुआ और फिर उनके एकमात्र पुत्र का भी शरीर छूट गया तब नरसी जी ने पुत्र की मृत्यु पर कहा था –
भलुँ थयुँ भाँगी जंजाल.
सुखे भजीशूँ श्रीगोपाल.
उनका यह भाव ही बतलाता है कि वे कितने अनासक्त कामनाहीन भगवद् भक्त थे।

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