16 वी शताब्दी के उत्तरार्ध में तुलुवा राज्य पुर्तगालियों के अत्याचारों से जूझ रहा था। विजय नगर साम्राज्य के अन्तर्गत एक छोटा सा नगर था उल्लाल। जिसकी रानी थी रानी अब्बक्का चौटा, जिसने पुर्तगालियों के साथ संघर्ष किया और कई बार उन्हें पराजित किया। उनकी न्यायप्रियता, युद्ध कुशलता और वीरता के कारण ही उन्हे ‘अभ्या रानी’ के नाम से सम्बोधित किया जाता था, जिसका अर्थ था ऐसी रानी जो किसी से डरती नहीं थी और निर्भय हो शत्रुओं का सामना करती थी।
रानी चौटा राजवंश से सम्बन्ध रखती थी। चौटा दिगंबर जैन समुदाय की मातृवंशीय विरासत (अलियसंतान) प्रणाली का पालन करने वाली वंशावली थी। मातृवंशीय परंपरा एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था थी जिसमें परिवार की स्त्रियों का स्थान प्रमुख होता था और संपत्ति व शासन पर बेटों के बजाय बेटियों को अधिकार दिया जाता था। इसी परंपरा के अनुसार अब्बक्का के मामा निर्मला राय ने उनका अभिषेक उल्लाल की रानी के पद पर किया। रानी अब्बक्का को युद्ध लडने और शासन व्यवस्था संभालने का अच्छा खासा प्रशिक्षण उसके मामा तिरुमला राय द्वारा दिया गया था। मामा तिरुमला राय ने उनका विवाह मैंगलुरू की बंगा रियासत के राजा लक्ष्मणप्पा अरसा के साथ करवाया। हालांकि, यह विवाह अल्पकालिक साबित हुआ और अब्बक्का अपनी पुत्री के साथ वापस उल्लाल लौट आयी क्योंकि उनके पति अपने स्वधर्म का पालन न करते हुए पुर्तगालियों के साथ मिल गए थे। अपनी माता और मातृभूमि से द्रोह करना अब्बक्का को स्वीकार न था। लेकिन उन्हें शायद अनुमान भी नहीं था कि आने वाले समय में उनके पति लक्ष्मणप्पा इस बात का बदला लेने के लिए उनके खिलाफ युद्ध में पुर्तगालियों का साथ देंगे। उन्होंने अपनी राजधानी पुट्टीगे (वर्तमान कर्नाटक) को बनाया। उन्होंने उल्लाल के बंदरगाह नगर का भी अपनी सहायक राजधानी के रूप में उपयोग किया।
वर्ष 1525 में पुर्तगालियो ने दक्षिण कन्नड के तट पर हमला किया और बेंगलुरू के बंदरगाह को ध्वस्त कर दिया, लेकिन वे उल्लास पर आधिपत्य नहीं जमा पाए। अब्बक्का के कुशल शासन व्यवस्था एवम रणकौशल से तिलमिलाएं पुर्तगालियों ने माँग की कि वह स्वयं को पुर्तगाली शासन के प्रति समर्पित कर दे। लेकिन अब्बक्का ने हथियार डालने से इन्कार कर दिया। पुर्तगालियों ने रानी अब्बक्का की रणनीतियों से परेशान होकर उन पर यह दबाव बनाने की कोशिश की कि रानी उन्हें ‘कर’ (टैक्स) चुकाए। लेकिन रानी अब्बक्का ने समझौता करने से मना कर दिया। वर्ष 1555 में पुर्तगालियों ने एडमिरल डॉम अल्वारो डा सिल्वेरा को रानी के साथ युद्ध करने भेजा। पुर्तगालियों से इस लडाई में, रानी अब्बक्का एक बार फिर उल्लाल पर अपनी पकड बनाये रखने में सफल रही और उन्होंने आक्रमणकारियों को सफलतापूर्वक अपने क्षेत्र से बाहर खदेड दिया।
वर्ष 1557 में पुर्गालियों ने बैंगलुरु को लूटकर बर्बाद कर दिया। वर्ष 1568 में पुर्तगालियों ने फिर से उल्लाल पर आक्रमण किया। पुर्तगाली वायसराय एंटोनियो नोरोन्हा ने जनरल जोआओ पिक्सोटो को अपने दल-बल के साथ उल्लाल भेजा। रानी अब्बक्का ने फिर से सशक्त प्रतिरोध किया। पर इस बार पुर्तगाली सेना उल्लाल पर कब्जा करने में सफल रही और महल में घुस आई। रानी अब्बक्का किसी प्रकार वहाँ से बच निकली और उसी रात करीब 200 सैनिकों को इकट्ठा करके रानी ने पुर्तगालियों के किले पर धावा बोल दिया। लडाई में पुर्तगाली सेना का जनरल मारा गया, अनेक पुर्तगाली सैनिक बंदी बना लिए गए तथा शेष पुर्तगाली सैनिक युद्ध छोडकर भाग खडे हुए। उसके बाद रानी अब्बक्का ने अपने साथियों के साथ मिलकर पुर्तगालियों को मैंगलुरु का किला छोडने पर मजबूर कर दिया। रानी का पति और बंगा रियासत का राजा लक्ष्मणप्पा अरसा अपनी पत्नी से बदला लेने के लिए पुर्तगालियों की मदद
करने लगा, उसके सहयोग से पुर्गालियों ने उल्लाल पर फिर से हमले करने शुरू कर दिए। वर्ष 1569 में करने लगा, उसके सहयोग से पुर्गालियों ने न केवल मैंगलुरु का किला दोबारा हासिल कर लिया बल्कि कुन्दपुरा (कनाटक का एक नगर) पर भी कब्जा कर लिया। इन सबके बावजूद भी रानी अब्बव्का पर्तगालियों के लिए एक बड़ा खतरा बनी रहीं। 1570 में, रानी ने अहमदनगर के बीजापुर सुल्तान और कालीकट के जामोरिन के साथ गठबंधन कर लिया, जो पहले से ही पुर्तगालियों का विरोध कर रहे थे। जामोरिन के सेनापति कुट्टीपोकर मरककर ने अब्बका की ओर से लड़ाई लडी और मैंगलोर में पुर्तगाली किले को नष्ट कर दिया। यद्यपि पति के विश्वासधात के बाद, अब्बक्का युद्ध हार गई और उन्हें गिरफतार कर जेल भेज दिया गया। जेल में भी उसने विद्रोह कर दिया और लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुईं। रानी अब्बक्का चौटा का स्थान न सिर्फं इतिहास में महत्त्वपूर्ण है बल्कि वे आज के समय में एक सशक्त महिला का उदाहरण भी हैं। राजनीति और शासन व्यवस्था संभालने की उनकी योग्यता उन्हें एक सफल शासक सिद्ध करती है।
लोककथाएं प्रचलित हैं कि वे एक न्यायप्रिय रानी थीं और इसी कारण उनकी प्रजा उन्हें बहुत पसंद करती थी। ऐसा भी माना जाता है कि रानी अब्बक्का लडाई में अग्निबाण का उपयोग करने वाली अंतिम महिला थीं। उनके शासन में सभी समुदायों के लोग सदभावपूर्ण ढ़ंग से रहते थे। यह उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व का ही प्रभाव है कि पीढ़ी-दर-पीढी लोककथाओं और लोकगीतों के द्वारा उनकी कहानी सुनाई जाती रही है। ‘यक्षगान’ जो कि कर्नाटक की एक पारंपरिक नाट्य शैली है, के माध्यम से भी रानी अब्बक्का की वीरता की कथाओं को बताया जाता रहा है। इसके अलावा, ‘भूतकोला’ जो कि एक स्थानीय पारंपरिक नृत्य शैली है, में भी रानी अब्बक्का को अपनी प्रजा का ध्यान रखने वाली और न्याय करने वाली रानी के रूप में दर्शाया जाता है। आज भी रानी अब्बक्का चौटा की याद में उनके नगर उल्लाल में उत्सव मनाया जाता है और इस ‘वीर रानी अब्बक्का’ की याद में प्रतिष्ठित महिलाओं को ‘वीर रानी अब्बवका प्रशस्ति’ पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है।