लेखक:दीपक कुमार द्विवेदी
कुछ लोग आज भी कहते हैं कि वन्दे मातरम् सांप्रदायिक है। उनका तर्क यही है कि गीत में माँ के देवी-स्वरूप—दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती—का स्मरण आता है; राज्य का “कोई धर्म नहीं” होना चाहिए और “सभी धर्म समान” होते हैं। इसी भ्रांति ने भारत के आत्मस्वर को बार-बार आहत किया है। दरअसल यहाँ “धर्म” को “रिलिजन/मज़हब” मान लेने की गलती हुई—जबकि धर्म का शास्त्रीय अर्थ है—जो धारण करे, जो लोक-व्यवस्था और सृष्टि-संतुलन को टिकाए रखे।मनुस्मृति कहती है—“धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः।”महाभारत की वाणी है—“धर्मो हि तेषां निहितो गुहायाम्—महाजनो येन गतः स पन्थाः।”गीता में कर्म–धर्म–ब्रह्म की अखंड कड़ी है, और भागवत में स्पष्ट—“धर्मं तु साक्षाद् भगवद्प्रणीतम्।”यही भारत की दृष्टि है; धर्म यहाँ सत्ता का औज़ार नहीं, जीवन का शाश्वत नियम है—स्वधर्म, राजधर्म, राष्ट्रधर्म, विश्वधर्म एक ही सूत्र में। इसीलिए राजा धर्म का स्वामी नहीं, अनुशासित है; राज्य का धर्म है न्याय, मर्यादा और संरक्षण।
इसी शाश्वत धर्म की अनुभूति बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने आनन्दमठ में “माँ” के रूप में की—माँ जो धरती है, जो सबको धारण करती है, जो जल, वायु, धरा, अग्नि और आकाश का एकात्म है। इस अनुभूति का स्वर है—वन्दे मातरम्। पहली बार 1896 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अधिवेशन (कलकत्ता) में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इसे सुर दिया; तभी से यह पूरे देश का गीत बन गया—सभाओं में, आंदोलनों में, क्रांतिकारियों के होंठों पर। किसी को इसमें संप्रदाय नहीं दिखा; यह तो राष्ट्र-चेतना का पहला स्वर था।आगे इतिहास ने एक कटु मोड़ लिया—1921 में मालाबार क्षेत्र का मोपला नरसंहार हुआ—इस्लामी मज़हबियों द्वारा सनातनी हिन्दुओं पर विनाशकारी हमला; और राजनीतिक सुविधा ने उसे “किसान विद्रोह” कहकर ढक दिया। यहीं से तुष्टिकरण की राजनीति का बीजारोपण हुआ—सत्य को ढकना और राष्ट्र-भाव से कतराना।
इसी प्रवृत्ति का अगला चरण 1937 में आया—जिन्ना और मुस्लिम लीग के दबाव में कांग्रेस नेतृत्व ने वन्दे मातरम् के देवी-स्वरूप वाले पदों को हटाकर केवल शुरुआती भाग मान्य माना। यह निर्णय केवल गीत की पंक्तियों पर नहीं, भारत की आत्मा पर चलाया गया चाकू था; अपने ही प्रतीक से झिझकना शुरू हुआ।1947 में विभाजन हुआ—माँ का आँचल चीर दिया गया—पर तुष्टिकरण का रोग यहीं नहीं थमा; 1976 में संविधान की प्रस्तावना में “सेकुलर” शब्द जोड़कर राज्य को धर्म-जवाबदेही से लगभग अलग खड़ा कर दिया गया—एक ऐसा ढाँचा, जहाँ “धर्म-विहीन” राज्य अपनी नैतिक आत्मा खो बैठता है और “सभी धर्म समान” की नारेबाज़ी सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म के विवेक को धुँधला देती है।
भारत इसलिए जीवित है कि यहाँ धर्म सत्ता का औज़ार नहीं, सत्ता का अनुशासन है; राजा धर्म के अधीन है, धर्म राज्य के नहीं।
आज राहुल गांधी जब यह कहते हैं—“भारत माता कौन है? भारत तो एक राष्ट्र नहीं, राज्यों का संघ है”—तो यह केवल एक राजनीतिक वाक्य नहीं, बल्कि एक ऐसी दृष्टि की झलक है जो भारत को जीवित चेतना नहीं मानती। यह वही सोच है जो औपनिवेशिक इतिहासकारों और बाद में वामपंथी बुद्धिजीवियों के प्रभाव में पनपी, जिन्होंने भारत की आत्मा को संस्कृति और धर्म के स्थान पर केवल प्रशासनिक सीमाओं में बाँध दिया। ऐसे लोगों के लिए भारत कोई चेतन राष्ट्र नहीं, केवल राज्यों का संगठन है; मातृभूमि कोई माँ नहीं, मात्र भूमि का टुकड़ा है। इसी मानसिकता के कारण उन्हें वन्दे मातरम् और आनन्दमठ सांप्रदायिक लगते हैं, क्योंकि वे राष्ट्र को माँ के रूप में नहीं, शासन की रचना के रूप में देखते हैं। पर भारत का राष्ट्रत्व संविधान की धारा से नहीं, संस्कृति की चेतना से उपजा है; वह किसी अनुबंध से नहीं, धर्म और कर्तव्य की अनुभूति से निर्मित है।
यही संदर्भ लेकर वन्दे मातरम् को उसके मूल स्वर में सुनिए; यह किसी पंथ का नहीं, सृष्टि-धर्म का गीत है—मातृभूमि के माध्यम से उस शाश्वत नियम का वंदन, जो जीवन को संतुलित रखता है:
वन्दे मातरम्। सुजलाम् सुफलाम् मलयजशीतलाम्, शस्यश्यामलाम् मातरम्। वन्दे मातरम्।। 1।।
माँ का रूप प्रकृति का रूप है—जल की शीतलता, फल की सम्पन्नता, अन्न की हरितिमा; यह किसी संप्रदाय की देवी नहीं, धारण करने वाली वह धरती है जो सबकी है, सबको समान रूप से पालती है।
शुभ्रज्योत्स्ना पुलकितयामिनीम्, फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्, सुहासिनीम् सुमधुरभाषिणीम्, सुखदाम् वरदाम् मातरम्। वन्दे मातरम्।। 2।।
माँ आनंद और माधुर्य है—रात को चाँदनी से पुलकित करने वाली, वसंत में फूलों-सी सुषमा बिखेरने वाली, हँसती, मधुर बोलती, सुख और वरदान देने वाली—धर्म का कोमल, करुणामय स्वर।
कोटि-कोटि कण्ठ कल-कल निनाद कराले, कोटि-कोटि भुजैर्धृत खरकरवाले, के वॉले माँ तुमि अबले, बहुवलधारिणीं नमामि तारिणीम्, रिपुदलवारिणीं मातरम्। वन्दे मातरम्।। 3।।
माँ शक्ति का प्रतीक है—कोटि-कोटि कंठों का जयघोष और कोटि-कोटि भुजाओं का संकल्प; वह अबला नहीं, बहुवलधारिणी है—अधर्म का निवारण, अन्याय का प्रतिकार, संतुलन की रक्षा—धर्म का रक्षात्मक आयाम।
तुमि विद्या तुमि धर्म, तुमि हृदि तुमि मर्म, त्वम् हि प्राणाः शरीरे, बाहुते तुमि माँ शक्ति, हृदये तुमि माँ भक्ति, तोमारेई प्रतिमा गड़ि मन्दिरे-मन्दिरे। वन्दे मातरम्।। 4।।
माँ विद्या है, धर्म है, हृदय का मर्म है; वही शक्ति है जो कर्म देती है, वही भक्ति है जो करुणा जगाती है। प्रतिमा केवल पत्थर में नहीं, हृदय में गढ़ी जाती है—यही भारत का धर्म-दर्शन है: बाहर कर्तव्य, भीतर श्रद्धा; यही स्वधर्म, राजधर्म और राष्ट्रधर्म का संतुलन।
त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी, कमला कमलदलविहारिणी, वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्, नमामि कमलाम्, अमलाम् अतुलाम्, सुजलां सुफलां मातरम्। वन्दे मातरम्।। 5।।
दुर्गा—रक्षा, लक्ष्मी—समृद्धि, वाणी—ज्ञान; तीनों सृष्टि के तीन स्तम्भ हैं—धर्म का त्रिगुण-संतुलन। यह “देवी-पूजा” नहीं, प्रकृति और संस्कृति की तीन मूल शक्तियों का बोध है—वही नियम जो समाज, राज्य और व्यक्ति—सभी को संयमित रखता है।
श्यामलाम् सरलाम् सुस्मिताम् भूषिताम्, धरणीम् भरणीम् मातरम्। वन्दे मातरम्।। 6।।
माँ का शांत, धारणशील रूप—सरल, सुस्मित, सबका भार वहन करने वाली धरणी—यही धर्म का स्थैर्य है—अडोल करुणा और सतत संतुलन।
इतिहास गवाह है—जब भी हमने धर्म (अर्थात सृष्टि के नियम) को छोड़कर “रिलिजन-समता” की सतही धारणा अपनाई, हम अपने ही प्रतीकों से संकोच करने लगे। 1921 के मोपला प्रसंग को “कृषक विद्रोह” कहकर ढकना, 1937 में वन्दे मातरम् की कट-छाँट, 1947 का विभाजन, और 1976 में प्रस्तावना में “सेकुलर” शब्द जोड़ना—यह सब उसी आत्मविरोध का सिलसिला है। “सभी धर्म समान” कहना सुनने में सुन्दर है, पर यह सत्य और असत्य, धर्म और अधर्म, ज्ञान और अज्ञान को एक तराज़ू पर रख देता है—यहीं से नीति में भ्रम उपजता है और समाज का संतुलन टूटता है।
हिन्दू इस धर्म का जीवित धारणकर्ता है—क्योंकि हिन्दू होना किसी पंथ-सीमा का नाम नहीं; यह कर्म, पुनर्जन्म, आत्मा और ब्रह्म की अखंड मान्यता है—नर से नारायण बनने की साधना। पश्चिमी समाजों ने जब धर्म को त्यागकर “रिलिजन/मज़हब” का संस्थागत अनुबंध स्वीकार किया, तब जीवन से नियम हटकर केवल आग्रह रह गया—यही अधर्म है, क्योंकि इससे सृष्टि-संतुलन का बोध दुर्बल होता है। भारत इसलिए जीवित है कि यहाँ धर्म सत्ता का औज़ार नहीं, सत्ता का अनुशासन है; राजा धर्म के अधीन है, धर्म राज्य के नहीं।
आज 150 वर्ष पूरे होने पर जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वन्दे मातरम् को मूल रूप में स्वीकार करते हुए स्मारक डाक-टिकट, सिक्का और वर्ष-भर के राष्ट्रीय कार्यक्रमों का आरम्भ किया, तो यह केवल उत्सव नहीं—आत्मगौरव की पुनर्स्थापना है; एक ऐतिहासिक भूल का परिमार्जन है कि अब हम अपने गीत, उपन्यास और प्रतीक—सबको बिना संकोच अपनाएँगे। जो लोग आज भी वन्दे मातरम् और आनन्दमठ को सांप्रदायिक कहते हैं, वे भारत की आत्मा से अपरिचित हैं; वे “धर्म” नहीं, “रिलिजन” देख रहे हैं; वे सबको एक जैसा मानने की भूल में सत्य और असत्य, धर्म और अधर्म को एक कर देते हैं—इसी दृष्टिदोष ने कल कटौती करवाई, विभाजन कराया, और आज भी भारतीयता पर संदेह बनाए रखा है।
वन्दे मातरम् धर्म का गीत है; वह सृष्टि के नियम का संगीत है; वह मातृभूमि के माध्यम से मानव के कर्तव्य, करुणा और साहस को जगाने वाला मंत्र है।जो इसे समझता है, वह भारत को समझता है;जो इससे कतराता है, वह अपनी ही आत्मा से दूर हो जाता है।जब तक यह भूमि अपनी माँ को “माँ” कहती रहेगी, जब तक यह गीत गूँजता रहेगा,भारत का हृदय संतुलन और श्रद्धा से धड़कता रहेगा—वही धर्म, वही राष्ट्रधर्म, वही मानवधर्म।
वन्दे मातरम्।




