वल्लभाचार्य

अमरदीप जौली

(आषाढ़ शुक्ल तृतीया/ पुण्य-तिथि)

श्री वल्लभाचार्य भक्ति कालीन सगुणधारा की कृष्ण भक्ति शाखा के आधार स्तम्भ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता थे. उनका प्रादुर्भाव विक्रम संवत् 1535 (सन् 1479), वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्राम वासी तैलंग ब्राह्मण श्री लक्ष्मण भट्ट की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से हुआ. यह स्थान वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य के निकट चम्पारण है. उन्हें वैश्वानरावतार (अग्नि का अवतार) कहा गया है. वे वेद शास्त्र में पारंगत थे. वर्तमान में इसे वल्लभ सम्प्रदाय या पुष्टिमार्ग सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है. और वल्लभ सम्प्रदाय वैष्णव सम्प्रदाय के अन्तर्गत आते हैं. वल्लभाचार्य का अधिकांश समय काशी, प्रयाग और वृंदावन में ही बीता. उनकी पत्नी का नाम महालक्ष्मी था. उनके दो पुत्र थे गोपी नाथ और विट्ठल नाथ. जब इनके माता-पिता मुस्लिम आक्रमण के भय से दक्षिण भारत जा रहे थे तब रास्ते में छत्तीसगढ़ के रायपुर नगर के पास चंपारण्य में 1479 में वल्लभाचार्य का जन्म हुआ. बाद में काशी में ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई और वहीं उन्होंने अपने मत का उपदेश भी दिया. रुद्र संप्रदाय के विल्वमंगलाचार्य जी द्वारा इन्हें अष्टादशाक्षर गोपाल मंत्र की दीक्षा दी गई और त्रिदंड संन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेंद्रतीर्थ से प्राप्त हुई. 52 वर्ष की आयु में उन्होंने आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया सन् 1530 में काशी में हनुमानघाट पर गंगा में प्रविष्ट होकर जल-समाधि ले ली. ऐसा माना जाता है कि वल्लभाचार्य के 84 (चौरासी) शिष्य थे जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, कृष्णदास, कुंभनदास और परमानंद दास. वल्लभाचार्य के अनुसार तीन ही तत्व हैं ब्रह्म, ब्रह्माण्ड और आत्मा. अर्थात ईश्वर, जगत और जीव. उक्त तीन तत्वों को केंद्र रखकर ही उन्होंने जगत और जीव के प्रकार बताए और इनके परस्पर सम्बन्धों का खुलासा किया. उनके अनुसार भी ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है जो सर्वव्यापक और अंतर्यामी है. कृष्ण भक्त होने के नाते उन्होंने कृष्ण को ब्रह्म मानकर उनकी महिमा का वर्णन किया है. वल्लभाचार्य के अद्वैतवाद में माया का सम्बन्ध अस्वीकार करते हुए ब्रह्म को कारण और जीव-जगत को उसके कार्य रूप में वर्णित कर तीनों शुद्ध तत्वों की साम्यता प्रतिपादित की गई है. इसी कारण ही उनके मत को शुद्ध द्वैतवाद कहते हैं. ब्रह्मसूत्र पर अणुभाष्य इसे ब्रह्मसूत्र भाष्य अथवा उत्तरमीमांसा कहते हैं, श्रीमद् भागवत पर सुबोधिनी टीका और तत्वार्थदीप निबन्ध. इसके अलावा भी उनके अनेक ग्रन्थ हैं. सगुण और निर्गुण भक्ति धारा के दौर में वल्लभाचार्य ने अपना दर्शन स्वयं लिखा था लेकिन उसके मूल सूत्र वेदान्त में ही निहित हैं. उन्होंने रुद्र सम्प्रदाय के प्रवर्तक विष्णु स्वामी के दर्शन का अनुसरण तथा विकास करके अपना शुद्धद्वैत मत या पुष्टिमार्ग प्रतिष्ठित किया था.

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