समर्थ रामदास महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध सन्त थे। वे छत्रपति शिवाजीमहाराज के गुरु थे। उन्होने दासबोध नामक एक ग्रन्थ की रचना की जो मराठी में है। समर्थ रामदास का मूल नाम नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी था। इनका जन्म महाराष्ट्र के जालना जिले के जांब नामक स्थान पर रामनवमी के दिन मध्यान्ह में जमदग्नी गोत्र के देशस्थ ऋग्वेदी ब्राह्मण परिवार में सन 1608 में हुआ।
समर्थ रामदास जी के पिता का नाम सूर्याजी पन्त था। वे सूर्यदेव के उपासक थे और प्रति दिन आदित्यह्रदय स्तोत्र का पाठ करते थे। वे गाँव के पटवारी थे लेकिन उनका बहुत सा समय उपासना में ही बीतता था।
उनकी माता का नाम राणुबाई था। वे संत एकनाथ जी के परिवार की दूर की रिश्तेदार थी। वे भी सूर्य नारायण की उपासिका थीं। सूर्यदेव की कृपा से सूर्याजी पन्त को दो पुत्र गंगाधर स्वामी और नारायण (समर्थ रामदास) हुए। समर्थ रामदास जी के बड़े भाई का नाम गंगाधर था। उन्हें सब ‘श्रेष्ठ’ कहते थे। वे अध्यात्मिक सत्पुरुष थे। उन्होंने ‘सुगमोपाय ‘ नामक ग्रन्थ की रचना की है। मामा का नाम भानजी गोसावी था। वे प्रसिद्ध कीर्तनकार थे।
एक दिन माता राणुबाई ने नारायण (यह उनके बचपन का नाम था) से कहा, ‘तुम दिनभर शरारत करते हो, कुछ काम किया करो। तुम्हारे बड़े भाई गंगाधर अपने परिवार की कितनी चिंता करते हैं!’ यह बात नारायण के मन में घर कर गई। दो-तीन दिन बाद यह बालक अपनी शरारत छोड़कर एक कमरे में ध्यान मग्न बैठ गया। दिनभर में नारायण नहीं दिखा तो माता ने बड़े बेटे से पूछा कि नारायण कहाँ है।
उसने भी कहा, ‘मैंने उसे नहीं देखा।’ दोनों को चिंता हुई और उन्हें ढूँढने निकले पर, उनका कोई पता नहीं चला। शाम के वक्त माता ने कमरे में उन्हें ध्यानस्थ देखा तो उनसे पूछा, ‘नारायण, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?’ तब नारायण ने जवाब दिया, ‘मैं पूरे विश्व की चिन्ता कर रहा हूँ।’
इस घटना के बाद नारायण की दिनचर्या बदल गई। उन्होंने समाज के युवा वर्ग को यह समझाया कि स्वस्थ एवं सुगठित शरीर के द्वारा ही राष्ट्र की उन्नति संभव है। इसलिए उन्होंने व्यायाम एवं कसरत करने की सलाह दी एवं शक्ति के उपासक हनुमानजी की मूर्ति की स्थापना की। समस्त भारत का उन्होंने पद-भ्रमण किया। जगह-जगह पर हनुमानजी की मूर्ति स्थापित की, जगह-जगह मठ एवं मठाधीश बनाए ताकि पूरे राष्ट्र में नव-चेतना का निर्माण हो।
समर्थ जी का व्यक्तित्व भक्ति ज्ञान वैराग्य से ओतप्रोत था। मुखमण्डल पर दाढ़ी तथा मस्तक पर जटाएं, भालप्रदेश पर चन्दन का टिका रहता था। उनके कंधे पर भिक्षा के लिए झोली रहती थी। एक हाथ में जपमाला और कमण्डलु तथा दूसरे हाथ में योगदण्ड होती थी। पैरों में लकड़ी कि पादुकाए धारण करते थे। योगशास्त्र के अनुसार उनकी भूचरी मुद्रा थी। मुख में सदैव राम नाम का जाप चलता था और बहुत कम बोलते थे। वे संगीत के उत्तम जानकार थे। उन्होनें अनेकों रागों में गायी जाने वाली रचनाएं की हैं।
आप प्रतिदिन 1200 सूर्य नमस्कार लगाते थे इस कारण शरीर अत्यन्त बलवान था। जीवन के अन्तिम कुछ वर्ष छोड़कर पूरे जीवम में वे कभी एक स्थान पर नहीं रुके। उनका वास्तव्य दुर्गम गुफाएं, पर्वत शिखर, नदी के किनारें तथा घने अरण्य में रहता था।
समर्थ रामदास जी ने अपने शिष्योंके द्वारा समाज में एक चैतन्यदायी संगठन खड़ा किया। उन्होनें सतारा जिले में ‘चाफल ‘ नाम के एक गाँव में भव्य श्रीराम मंदिर का निर्माण किया। यह मंदिर निर्माण केवल भिक्षा के आधार पर किया। कश्मीर से कन्या कुमारी तक उन्होंने 1100 मठ तथा अखाड़े स्थापित कर स्वराज्यस्थापना के लिए जनता को तैयार करने का प्रयत्न किया। शक्ति एवं भक्ति के आदर्श श्री हनुमान जी कि मूर्तियां उन्होनें गाँव गाँव में स्थापित की।
आपने अपने सभी शिष्यों को विभिन्न प्रांतों में भेजकर भक्तिमार्ग तथा कर्मयोग की शिक्षा जन-जन में प्रचारित करने कि आज्ञा दी। युवाओं को बलसम्पन्न करने हेतु आपने सूर्यनमस्कार का प्रचार किया। समर्थ जी नें 350 वर्ष पहले संत वेणा स्वामी जैसी विधवा महिला को मठपति का दायित्व देकर कीर्तन का अधिकार दिया।
समर्थ रामदास जी के भक्तों एवं अनुयायियों को राम दासी कहते हैं। समर्थजी द्वारा स्थापित सम्प्रदाय को समर्थ सम्प्रदाय अथवा राम दासी सम्प्रदाय कहते हैं। जय जय रघुवीर समर्थ यह सम्प्रदाय का जयघोष है तथा श्रीराम जय राम जय जय राम जपमन्त्र है। समर्थ जी कि विचारधारा तथा कार्य का प्रभाव लोकमान्य तिलक, स्वातंत्र्यवीर सावरकर, डॉ॰ केशव बलिराम हेडगेवार आदि महान नेताओं पर था।
समर्थ गुरु रामदास(चैत्र शुक्ल नवमी/ जन्मोत्सव)
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