बलबीर पुंज
पिछले दिनों कुख्यात अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय मजहबी स्वतंत्रता आयोग (यूएससीआईआरएफ) की रिपोर्ट सार्वजनिक हुई. 26 जून को जारी की गई रिपोर्ट में भारत में मतांतरण विरोधी कानूनों, नफरती भाषणों और अल्पसंख्यकों के कथित ‘उत्पीड़न’ आदि पर ‘चिंता’ जताई गई है. इससे दो दिन पहले अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने भी आरोपों को एक प्रेसवार्ता में दोहराया था. रिपोर्ट में नागरिक संशोधन अधिनियम (सीएए), भारत सरकार द्वारा कई एनजीओ का विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) पंजीकरण रद्द करने और तीस्ता सीतलवाड़ का भी जिक्र है. ये वही तीस्ता सीतलवाड़ है, जिनके खिलाफ शीर्ष अदालत ने ही गुजरात दंगा मामले (2002) को झूठी कहानी गढ़ने और फर्जी गवाही दिलाने के आरोप में मुकदमा चलाने का आदेश दिया था.दुखद है कि इस प्रकार की भारत-विरोधी रिपोर्ट जारी करने वाले संगठनों की विश्वसनीय और ईमानदार जांच नहीं की जाती. इस अमेरिकी आयोग ने भारत को जिन देशों के साथ ‘विशेष चिंता वाले देश’ की सूची में वर्गीकृत किया है, उसमें घोर इस्लामी पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सऊदी अरब, ईरान के साथ वामपंथी चीन, उत्तर-कोरिया और क्यूबा जैसे देश भी शामिल हैं. अब साम्यवादी शासन वाले देशों में कैसे मानवाधिकारों को कुचला जाता है और कैसे इस्लामी गणराज्य में ‘काफिर-कुफ्र-शिर्क’ अवधारणा से प्रेरित होकर अल्पसंख्यकों का झकझोर देने वाला उत्पीड़न किया जाता है – इसकी विस्तृत और मुखर चर्चा, तथ्यों के साथ होती रही है.सच तो यह है कि भारत वाम-समाजवाद और इस्लामी कट्टरता का सबसे बड़ा शिकार है. अनादिकाल से बहुलतावाद, पंथनिरपेक्षता और लोकतंत्र, भारतीय सनातन संस्कृति का प्रतिबिंब रही है. इसका प्रमाण है कि – सदियों पहले स्थानीय हिन्दू शासकों और समाज ने पारसियों, यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों आदि का स्वागत किया. इस समरसता पर प्रहार तब हुआ, जब अब्राहमिक एकश्वेरवाद के नाम पर स्थानीय हिन्दू, बौद्ध और सिक्ख आदि का खून बहाया गया, उनके सैकड़ों पूजा स्थल तोड़े गए और उनकी महिलाओं की अस्मत तक लूट ली गई. कालांतर में उसी सनातन भारत का इस्लाम के नाम पर विभाजन हो गया, जिसमें औपनिवेशिक ब्रितानियों और वामपंथियों ने निर्णायक भूमिका निभाई.इसी वैचारिक कॉकटेल से सजा यूएससीआईआरएफ, मजहबी स्वतंत्रता पर रिपोर्टिंग करने के नाम पर भारत की छवि को कलंकित कर रहा है. इसमें भारत-विरोधी रिपोर्ट तैयार करने वाले लोग कौन हैं, यह इस संगठन की वेबसाइट में उपलब्ध जानकारी से स्पष्ट है. इसमें एक सिविल राइट्स वकील अनुरीमा भार्गव का भी नाम है, जो दिसंबर 2018 से मई 2020 के बीच अमेरिकी आयोग की अध्यक्षता कर चुकी हैं. अनुरीमा ‘ओपन सोसाइटी फाउंडेशन’ की सदस्य हैं, जिसके संस्थापक जॉर्ज सोरोस वर्ष 2020 से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति अपनी घृणा का मुखर प्रदर्शन कर रहे हैं. यह दिलचस्प है कि उसी समय से यूएससीआईआरएफ अपनी पक्षपाती रिपोर्ट में भारत को ‘विशेष चिंता वाले देश’ के रूप में पेश कर रहा है.बात केवल यहीं तक सीमित नहीं. इससे पहले ‘वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब’ ने अपनी रिपोर्ट में मोदी सरकार को ‘अधिनायकवादी’ बताते हुए देश में ‘असमानता’ बढ़ने का आरोप लगाया था. कुछ-कुछ ऐसा ही निष्कर्ष ब्रितानी एनजीओ ऑक्सफैम का भी था, जिसके पदाधिकारियों और कर्मचारियों पर डेढ़ दशक पहले आपदाग्रस्त कैरेबियाई देश हैती में चंदे के पैसे से अपनी वासना को शांत करने, सहायता के बदले भूकंप-पीड़ित महिलाओं से यौन-संबंध बनाने और बच्चों का यौन-उत्पीड़न करने का आरोप साबित हो चुका है. स्वयं इंग्लैंड के हाउस ऑफ कॉमन्स (संसद) ने इसकी पुष्टि की थी. कोई आश्चर्य नहीं कि उसी ऑक्सफैम की रिपोर्ट को भारत के एक बड़े वर्ग ने बिना प्रश्न पूछे स्वीकार कर लिया था. वास्तव में, यह मानसिक तौर पर औपनिवेशिक गुलामी का प्रतीक है, जिसमें अक्सर गोरी चमड़ी वाले के सामने बौद्धिक समर्पण कर दिया जाता है.इस पृष्ठभूमि में क्या भारत में किसी ने ‘वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब’ रिपोर्ट बनाने वालों को जांचा-परखा? जिन सर्वेक्षणों के आधार पर इसे तैयार किया गया है, उसमें ‘हुरन’ नामक संस्था भी शामिल है, जिसका मुख्यालय चीन स्थित शंघाई में है. रूपर्ट हुगेवर्फ इसके संस्थापक हैं, जिन्हें उनके चीनी नाम हू-रन से भी जाना जाता है. भारत में ‘हुरन’ ईकाई का संचालन मुंबई स्थित अनस रहमान जुनैद करते हैं. पाखंड देखिए कि जो हुरन चीन में स्थापित है, जहां कम्युनिस्ट तानाशाही के तहत मानवाधिकारों का भीषण हनन होता है, वह भारत में लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को ‘अधिनायकवादी’ बता रहा है और भारतीय राजनीति-मीडिया का एक वर्ग उसे अंतिम सत्य मानकर हाथों-हाथ उठा रहा है. वह भी तब, जब दुनिया की विश्वसनीय संस्थाएं – विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) भारत में गरीबी घटने से संबंधित शोधपत्रों को पेश कर चुके हैं, तो नीति आयोग बीते एक दशक में लगभग 25 करोड़ भारतीयों के अत्यंत गरीबी की श्रेणी से बाहर निकलने का दावा कर चुका है.इनसे पहले भी ऐसी कई रिपोर्ट सामने आई थीं, जिनका निष्कर्ष पहली नजर में हास्यास्पद लग रहा था. फिर भी उसे भारतीय मीडिया और राजनीतिक वर्ग के एक हिस्से ने सिर-आंखों पर बैठा लिया. वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट (2024) में भारत को 126वें स्थान पर रखने के साथ बदहाल लीबिया, इराक, फिलिस्तीन, यूक्रेन, पाकिस्तान आदि देशों से पीछे बताया गया. यही नहीं, वर्ष 2023 के ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ में बांग्लादेश के साथ आर्थिक रूप से लकवाग्रस्त पाकिस्तान और श्रीलंका को दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति भारत से कहीं आगे बताया गया था. इसी तरह ब्रितानी ‘थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन’ ने अपने सर्वेक्षण (2018) में भारत को ‘महिलाओं के लिए दुनिया का सबसे खतरनाक देश’ घोषित कर दिया था और वह भी केवल 550 लोगों की राय लेकर.सच तो यह है कि इस प्रकार के बेहूदा निष्कर्ष किसी मासूम गुणा-भाग या बौद्धिक दिवालियापन का नतीजा नहीं होते. इसे सोची समझी रणनीति के तहत गढ़ा जाता है, जिसमें भारत-विरोधी एजेंडे की पूर्ति के लिए स्थापित तथ्यों को कांट-छांटकर उसे पूर्वाग्रह के सांचे में ढालकर परोस दिया जाता है. अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगी आज भी शेष विश्व पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास भी जारी रखे हुए हैं. आधुनिक युग में इस हिमाकत को ‘नव-औपनिवेशवाद’ कहा जाता है.