संत कबीर एक महान् कवि और संत थे. वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग के ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे. इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आन्दोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया. इनका लेखन सिखों के आदिग्रन्थ में भी देखने को मिलता है. कबीर जी का जन्म सन् 1398 में हुआ. उनके पालनकर्ता पिता नीरू और माता नीमा जुलाहे थे और बनारस नगर के बाहरी छोर पर रहते थे. धीरे-धीरे कबीर जी भी अपने कुल के इस व्यवसाय में कुशल हो गये. बचपन से ही कबीर दयालु और कोमल हृदय के थे, वे किसी का दुःख दर्द सहन नहीं कर सकते थे. एक बार सर्दी के मौसम में कबीर अपने पिता के आदेश से कपड़ा बेचने हाट (मेले) में जा रहे थे. मार्ग में उन्हें एक दरिद्र ठण्ड से ठिठुरता हुआ मिला. उसकी दशा को देखकर कबीर से न रहा गया और आधा कपड़ा उसे दे दिया. परन्तु उस ग़रीब आदमी ने बाकी कपड़ा भी माँग लिया, कबीर उसे मना नहीं कर सके, और पूरा कपड़ा उसे देकर खाली हाथ घर लौट आये और अपने पिता की नाराज़गी और डाँट चुपचाप सहन कर ली. कबीर आजीवन जुलाहे का कार्य करके अपना तथा अपने परिवार का पालन-पोषण करते रहे. कबीर के अपने छोटे से परिवार में उनकी पत्नी लोई, पुत्र कमाल, पुत्री कमाली थी. *ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय.* का सन्देश देने वाले कबीर समाज को नयी दिशा देने वाले सन्त थे. निम्न जाति से होने की उनमें कोई कुन्ठा नहीं थी, बल्कि वह स्वाभिमान से कहते थे कि, *मैं काशी का एक जुलाहा, बूझहु मोर गियाना* अर्थात् वह जाति-धर्म को नहीं, ज्ञान को ही सर्वोपरि मानते थे. उन्होंने धर्मों में व्याप्त कुरीतियों के प्रति लोगों को सचेत किया. सन्त कबीर रामानन्द के शिष्य थे. रामानन्द वैष्णव थे, लेकिन कबीर ने निर्गुण राम की उपासना की. यही कारण है कि कबीर की वाणी में वैष्णवों की अहिंसा और सूफियाना प्रेम है. अहंकार और माया से मुक्ति *भक्ति-मार्ग* से ही सम्भव है. नाभादास रचित *भक्त माल* के अनुसार, कबीर दास भक्ति विमुख धर्म को अधर्म मानते हैं. सन्त कबीर का मानना था कि एक ही तत्व सभी जीवात्मा में है, इसलिए जाति-पाति, छुआछूत, ऊँच-नीच का विचार व्यर्थ है. संत कबीर के लिखे कुछ महान् रचनाओं में बीजक, कबीर ग्रंथावली, अनुराग, सागर, साखी, सबद और रमैनी हैं.
संत कबीर
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